चक्रव्यूह में फंसती शिक्षा

Last Updated 31 Dec 2017 02:04:53 AM IST

आज के विकसित देशों में समृद्धि और संपन्नता के बड़े और कदाचित महत्त्वपूर्ण कारणों में एक प्रमुख कारण वहां की निरंतर बढ़ती ज्ञान-संपदा है, जिसके ऊपर देश के बजट का बड़ा भाग खर्च किया जाता है.


चक्रव्यूह में फंसती शिक्षा (फाइल फोटो)

विश्व बैंक के ज्ञानअर्थ व्यवस्था सूचकांक (नॉलेज इकोनोमी इंडेक्स) को देख कर यही लगता है कि ज्ञान की पूंजी से ही किसी देश का वास्तविक विकास  संभव हो पाता है. कुछ वर्ष पहले भारत का इस सूची में सौवां स्थान था. निश्चय ही ज्ञान की पूंजी आर्थिक पूंजी की तुलना में  कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, और हम पिछड़ रहे हैं. अत: भारत को अग्रणी राष्ट्रों में शुमार होने की आकांक्षा है, तो उसकी शिक्षा व्यवस्था को गुणात्मक रूप से उच्चस्तरीय बनाना होगा.

स्मरणीय है कि कोई भी ज्ञान अपने संदर्भ से कट कर प्रासंगिक और उपयोगी नहीं हो सकता. कहीं अन्यत्र  से ला कर दूसरी भूमि में रोप देने पर पौधा मुरझा जाता है. अत: यहां के समाज में यहां की आवश्यकता और सांस्कृतिक प्रकृति को ध्यान में रख कर ही कार्य करना होगा. आज भारत में संख्या की दृष्टि से शिक्षा का उल्लेखनीय प्रसार हुआ है, फिर भी  हमारी उपलब्धियां और जिम्मेदारियां भयावह पैमाने की हो रही हैं, और उनकी ओर पूरा ध्यान नहीं दिया जा पा रहा है. उदाहरण के लिए अभी तक पूर्ण साक्षरता का लक्ष्य नहीं पाया जा सका है, और न ही स्कूली आयु के सभी बच्चों को स्कूल भेजने का लक्ष्य ही पाया जा सका है. सच कहें तो अपनी वर्तमान हालत में भारतीय शिक्षा अपने अस्तित्व को बचाने में जुटी है. प्रवेश, प्रशिक्षण, परीक्षा और प्रमाणीकरण के चार पायों पर  टिकी शिक्षा नामक रचना के पायों के नीचे की जमीन दिन-प्रतिदिन खिसकती जा रही है. छात्र और अध्यापक के ताने-बाने से बनने वाली यह रचना कमजोर पड़ती जा रही है. इसकी चूल गांठें अपनी जगह से खिसक रही हैं. उससे निकलने वाले उत्पाद प्रश्नांकित हो रहे हैं, और शिक्षित बेरोज़गार युवाओं की संख्या भी बेतहाशा बढ़ती जा रही है.

कुल मिला कर भारतीय शिक्षा एक चक्रव्यूह में फंसती जा रही है. शिक्षा के लक्ष्यों जैसे कुशल और सक्षम मानव संसाधन उपलब्ध होना, व्यावसायिक विकास, कला और संस्कृति के विकास और सामाजिक दायित्व के भाव को लेकर शिक्षा से जो आशा बंधी थी, वह निकट भविष्य में पूरी होती नहीं दिखती. वस्तुत: शिक्षा व्यक्ति और समाज के बीच द्वंद्व और सहयोग का एक बड़ा क्षेत्र है. एक ओर ज्ञान की जिज्ञासा व्यक्ति स्वतंत्रता की अपेक्षा करती है, तो दूसरी सामाजिक शक्तियां ज्ञान का नियोजन और अनुबंधन करती चलती हैं. उदाहरण के लिए आज हमें स्थानीय और विस्तरीय शिक्षा के बीच संतुलन बनाना होगा. संपूर्ण मनुष्य के निर्माण को जगह देनी होगी. नैतिक चरित्र का विकास, कला और कौशल का विकास, सृजनात्मकता और सामाजिकता का विकास कैसे शिक्षा की प्रक्रिया में प्रभावी ढंग से लाया जाय यह सुनिश्चित करना होगा.



शिक्षा को वस्तु मान कर  उसकी मात्रा को बढ़ाने का उपक्रम किया जाता रहा है जबकि अपने मौलिक स्वरूप में शिक्षा जिज्ञासा का मानसिक  संस्कार करने वाली प्रक्रिया होती है. यह व्यवस्थित होते हुए भी उन्मुक्त होती है अर्थात वह बाह्य प्रभावों को ग्रहण करने के लिए तत्पर रहती है. अत: उसे चुनने की छूट मिलनी चाहिए ताकि उसकी प्रतिभा को प्रकाशित होने का अवसर मिल सके. उसे अनिश्चित और असुरक्षित देश काल में जीने का अवसर मिलता है. भारतीय शिक्षा की चुनौती का प्रमुख स्रोत बदलता जनसंख्या का पिरामिड है, जिसके अनुपात में स्कूलों और अध्यापकों की संख्या और अन्य संसाधन पर्याप्त नहीं हैं, उनकी गुणवत्ता का प्रश्न तो बहुत दूर है. साथ ही स्कूलों के चरित्र को निजीकरण और वैीकरण ने और  भी जटिल बना दिया है. व्यवस्था की जकड़न और जंजीरें हमें किंकर्तव्यविमूढ़-सी बना रही हैं. शिक्षा की योजना बनाते हुए हमें अपनी जमीनी  हकीकत को टटोलते हुए अपनी सामाजिक विविधता पर गौर करना होगा.

आज आदिवासी, ग्रामीण, पर्वतीय, अनुसूचित और विशिष्ट आवश्यकताओं वाले विद्यार्थियों के लिए अपेक्षित व्यवस्था करनी होगी. स्कूली स्तर पर बच्चों की स्कूली परिपक्वता, पाठ्यक्रम का आकार और विषयवस्तु, भाषा की शिक्षा और माध्यम के प्रश्न पर विचारना होगा. प्रवेश का नियमन और बच्चों को स्कूल में टिकाए रखने के लिए भी नीतिगत फैसले लेने होंगे. ये सवाल बहुत दिनों से लंबित पड़े हैं. आशा है सुशासन और निष्पादन पर जोर देने वाली वर्तमान सरकार इस और भी ध्यान देगी.

 

 

गिरीश्वर मिश्र


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