सीजन्स ग्रीटिंग्स

Last Updated 31 Dec 2017 01:54:24 AM IST

इतने दिन बाद किसी ने नए बरस की शुभकामनाओं का एक कार्ड भेजा है, जिस पर छपा है 'सीजन्स ग्रीटिंग्स' यानी नये साल का स्वागत.


सीजन्स ग्रीटिंग्स (फाइल फोटो)

कार्ड जिस लिफाफे में आया है, उसमें हाथ से नाम और पता लिखा है, जो भेजने वाले मित्र की खूबसूरत हैंड राइटिंग की याद दिलाता है. अंदर जहां सीजन्स ग्रीटिंग्स लिखा है, उसके नीचे मित्र के हस्ताक्षर हैं. जब से मोबाइल, मैसेज और व्हाट्सएप जैसे माध्यम आए हैं, तब से लोग भूल ही गए लगते हैं कि नये बरस का स्वागत करने के लिए कभी ग्रीटिंग्स कार्ड भी हुआ करते थे, जो नये साल के आने से पहले ही रवाना किए जाते थे, और नये साल में बाद तक पहुंचते रहते थे. वह पोस्ट ऑफिस का जमाना था. डाक होती. डाकिए होते. वे घर-घर चिठ्ठी-पत्री पहुंचाया करते. आप अपने डाकिए को पहचाना करते थे. वह आपको पहचानता था. वह एक विश्वसनीय 'मानवीय माध्यम' होता था. 

यही चिठ्ठी-पत्री का और ग्रीटिंग्स कार्डस का जमाना था. कोई तीस-चालीस साल पहले तक दिल्ली के बाजारों की पटरियों पर ग्रीटिंग्स कार्ड उसी तरह से बिका करते थे, जिस तरह से इन दिनों मोबाइल के कवर्स बिका करते हैं, या कपड़े बिका करते हैं. तब कार्ड प्रिंटिंग एक बड़ा उद्योग था. हर अवसर के लिए स्पेशल कार्ड होते. 'आरचीज' जैसी दुकानें इसी दौर में खुलीं. जन्म दिवस, पितृ दिवस, मातृ दिवस, मित्र दिवस, हैप्पी मैरिज एन्नीवर्सरी, राखी कार्ड और न जाने कौन-कौन से कार्ड मिला करते. नये बरस का स्वागत करने वाले नई-नई डिजाइन के कार्ड छपा करते और थोक में बिका करते. कुछ सस्ते होते तो कुछ महंगे होते. कार्ड के साथ लिफाफे मिलते. लिफाफों पर मित्रों के पते लिख कर और डाक टिकट चिपका, पोस्ट बॉक्स में डालकर आप अपने को कुछ 'मॉडर्न' हुआ समझते.

हम में से जो लोग छोटे कस्बों और गांवों से आए हैं, उनके लिए कार्ड कल्चर एक मॉडर्न टच देती. कार्ड से शुभकामना संदेश भेजकर नया साल मनाना हमें कुछ आधुनिक बना जाता. लेकिन देखते ही देखते नई सूचना क्रांति और उसके नाना उपादानों खासकर मोबाइल की कनेक्टिविटी ने सब कुछ बदल दिया. व्हाट्सएप, मैसेज और फेसबुक आदि ने कार्ड कल्चर को आउट कर दिया. हर बात पर 'हैप्पी हैप्पी' तो होने लगा. ग्रीटिंग्स और शुभकामनाओं का आदान-प्रदान तो बढ़ा लेकिन 'दस्तखतों' वाले संदेश गायब हो गए.

आज जरा-जरा सी बात पर मैसेज तो नजर आते हैं,  लेकिन एक कसक फिर भी रह जाती  है, जिसे 'साइबर स्पेस' का 'साइबरपना' यानी आभासीपना देता ही है. यहां लिखे को हम न छू सकते हैं, न सूंघ सकते हैं, न अक्षरों पर हाथ फिरा कर उनको महसूस कर सकते हैं. वे एकदम सपाट और पास होकर भी दूर ही रहते हैं. वे फिजीकल नहीं महसूस होते.



फिर एक दिन ऐसा आता है कि मोबाइल का स्पेस भर जाता है. आप जगह बनाने के लिए साफ करते हैं, तो संदेश उड़ाने पड़ते हैं, और इस तरह वे गायब हो जाते हैं. आप उनको दोबारा पलट कर देखने से वंचित हो जाते हैं. यों तो इनका भी भंडारण हो जाता है, लेकिन इन्हें रिटीव करने में वह मजा नहीं आता जो कार्ड्स के फाइल में लगे होने और बरसों बाद उसे पलट कर देखने में आता है. कार्ड होते तो कहीं फाइल में या गड्डी बांध कर रखे होते. आप उनको बरसों बाद भी देख सकते थे. अपना इतिहास पढ़ सकते थे. कार्ड को संभालना एक 'कल्चरल काम' लगता है. मैसेज संभालना 'कल्चरल' नहीं महसूस होता.

हिंदी के कवि अ™ोय बड़े करीने वाले थे. वे साहित्य संबंधी गोष्ठियों के काडरे, निमंतण्रपत्रों को अपने पास सुरक्षित रखते थे. आप उनको पढ़कर उस दौर के साहित्यिक और कल्चरल इतिहास की झलक पा सकते हैं. ऐसे काडरे के किनारों पर लिखे नोट्स जिस तरह आपको आपके सोचने का इतिहास बता सकते हैं, साइबर स्पेस के संदेश उस तरह नहीं बता पाते. आपके मित्र का संदेश तो है मोबाइल का नम्बर भी है,  मेल का पता भी है, लेकिन उसके दस्तखत नहीं हैं, रंग-बिरंगी स्याहियां नहीं हैं, उनका पुरानापन और उस पुरानेपन की खास 'खूशबू' नहीं है.

हम कनेक्ट तो जरूरत से ज्यादा हैं, लेकिन एक दूसरे से संबंधित और संबद्ध नहीं रह गए हैं. साइबर स्पेस ने हमें संपर्कित तो कर दिया है, लेकिन किसी से संबंधित और संबद्ध नहीं रहने दिया है, और एक मानी में अपने आप से भी 'असबद्ध' कर दिया है. क्या बेहतर न हो कि हम कार्ड कल्चर की ओर फिर से लौटें और 'सीजन्स ग्रीटिंग्स' वाले काडरे का ही लेन देन शुरू करें ताकि हमारे दस्तखत कहीं तो बचे रहें.

 

सुधीश पचौरी


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