मीडिया : मीडिया और अफवाह

Last Updated 24 Dec 2017 03:08:04 AM IST

कथित ‘टू जी घोटाले’ के सभी आरोपितों को बरी करते हुए माननीय न्यायाधीश द्वारा अपने फैसले में ‘अफवाहों, गप्पों और अटकलों’ से बनी ‘जन अवधारणाओं’ पर की गई टिप्पणी मीडिया के लिए भी काबिलेगौर है.


मीडिया : मीडिया और अफवाह

गप्पें, अफवाहें, अटकलें और अंध-अवधारणाएं कैसे-कैसे गुल खिलाती हैं, यह सोचते-सोचते मुझे पांच-छह साल पहले के वे दिन याद आने लगे जब रामलीला मैदान में अन्ना जी भूख हड़ताल पर बैठे थे, और मीडिया चौबीस बाई सात उनके भाषणों को दिखाया करता था.
एक तो रामलीला मैदान, दूसरे एक निष्कलंक आम आदमी की भूख हड़ताल, तीसरे हजारों लोग नारे लगाते हुए. सब साफ था. एक ओर ‘ईमानदार’ थे. उनके निशाने पर बेईमान थे. मीडिया ने मान लिया था कि तत्कालीन यूपीए की सत्ता पूरी तरह भ्रष्ट थी, और आरोपकर्ता  ईमानदार थे. अन्ना की भूख हड़ताल और टीवी के चैनलों द्वारा उसका चौबीस बाई सात का समारोह हमारे लिए भी एक ‘भ्रष्टाचार’ की निर्मिति कर चुका था. जब इतने लोग किसी को भ्रष्ट बताते हों तो किसी प्रमाण की क्या जरूरत? हल्ला ही प्रमाण था और मीडिया का हाइप ‘सनद’ था. अन्ना क्या झूठ बोलेंगे? मीडिया क्या झूठ बताएगा? हर ताकतवर पर शंका करने वाला हमारा मन सोचता कि जिनको भ्रष्ट बताया जा रहा है, वे अवश्य ही भ्रष्ट होंगे वरना इतने लोग नारे न लगाते, भूख हड़ताल न करते. लोकपाल ईमानदारी का नया देवता था, जिसे सिरजा जा रहा था, और ऐसा लगता था कि लोकपाल बनते ही ईमानदारी का राज कायम हो जाएगा. ईमानदार दिखने के लिए लोग रामलीला मैदान को विजिट करते और ईमानदारी की गंगा में एकाध डुबकी मार लेते. मीडिया की दुर्निवार कवरेज ने ऐसा घटाटोप बनाया कि जो शामिल न हुआ वह मानो बेईमान हुआ.

टू जी पर आए फैसले के बाद लगता है कि टू जी को लेकर बांधा गया तूमार बहुत दूर तक अफवाहों, गप्पों, अटकलों से निर्मित अवधारणाओं का परिणाम था. कानूनी भाषा में जब तक आरोप सिद्ध न हों, तब तक आरोपित निर्दोष माना जाता है. लेकिन जिंदगी ‘जन अवधारणाओं’ से चलती है और इस दुनिया में आरोपित को ही ‘अपराधी’ माना जाता है. ‘दाग’ लगना बड़ी बात है. भले ही दाग किसी दुश्मन ने जानबूझकर लगाया हो. हम लगाने वाले की जगह जिसे दाग लगता है, उसे ही अपराधी मानते हैं. मीडिया जिस तरह से आरोपित को बार-बार दिखाता है, उससे आरोपित सीधे अपराधी नजर आता है. हम आरोप और अपराध में फर्क नहीं कर पाते. ‘जन अवधारणाएं’ अंधी भी हो सकती हैं. कई बार वे ‘लिंच मॉब्स’ तक का निर्माण कर डालती हैं. देश के कई हिस्सों में किसी गरीब औरत को ‘डायन’ मानकर मार डालने वाले और यूपी, हरियाणा या राजस्थान में सिर्फ ‘बीफ’ या ‘लव जिहाद’ के शक पर किसी की  हत्या कर डालने वाले ‘झुंड’ अफवाहों, गप्पों, अटकलों और अवधारणाओं से ही ‘एक्शन’ किया करते हैं. 
हम मानते हैं कि अफवाहों में भी कुछ सच होता है. हम यह भी मानते हैं कि हमारे अलावा हर आदमी बेईमान है, और इस तरह हम सबको बेईमान मानते हैं, और इस पर भी हम मानते हैं कि ईमानदारी फिर भी संभव है. मीडिया में जब हम एक बड़े भ्रष्ट को देखते हैं, अपने को उतना ही ईमानदार महसूस करते हैं. उसे देख हम सब अपनी-अपनी छोटी-छोटी बेईमानियों को भूल जाते हैं क्योंकि हम तो पकड़े ही नहीं गए और इस तरह हम अपने को छोड़ बाकी सबको बेईमान मानकर खुश होते रहते हैं. जो नहीं पकड़ा जाता वो ‘ईमानदार’ होता है. जो पकड़ा जाता हैं, ‘बेईमान’ कहलाता है. ‘अंध-मान्याताएं’ इसी तरह काम करती हैं.
अब यह साफ हो चुका है कि ‘टू जी’ के कथित ‘घपले’ को मीडिया में जानबूझ कर लीक किया गया और मीडिया के एक हिस्से ने इसे इतना जोर-शोर से उठाया और सिर्फ ‘अनुमानित नुकसान’ पर पूरा केस बना दिया गया. मीडिया के एक हिस्से ने अपनी अदालत लगाकर फैसला तक सुना दिया. कंपटीशन के मारे दूसरे चैनलों ने भी इस हल्ले को सच मान लिया. मीडिया ‘सच’ की खोज नहीं करता. खोज करता तो जो बात जज को कहनी पड़ी, वह कहता और अफवाह की इंडस्ट्री के सहारे काम करने के लिए माफी मांगता. लेकिन वह सच की खोज क्यों करे? उसे तो एक ‘सच’ पकड़ा दिया जाता है, उसे ही वह ‘जनता की अवधारणा’ में बदलने लगता है. ‘इंडिया वांट्स दिस’, ‘नेशन वांटस दिस’ जैसी मीडिया की लाइनें देश और राष्ट्र की जगह खुद को रखने के छल हैं. मीडिया ऐसे ही छलों से काम करता है.

सुधीश पचौरी


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