प्रसंगवश : संगति वाली रचना है समाज
समाज एक संगति वाली रचना होती है, उसका जीवन उस संगति के बने रहने पर ही निर्भर करता है. ठीक वैसे ही जैसे कोई पहिया तभी ठीक से घूमता है, जब उसके कील-कांटे दुरुस्त हों.
प्रसंगवश : संगति वाली रचना है समाज |
इसी को ध्यान में रख कर आचार की व्यवस्था की गई. घोषित किया गया, ‘आचार: परमो धर्म:’. यह निरा आदर्श नहीं है क्योंकि जीवन में निरंतर ऐसे क्षण आते रहते हैं, जब प्रत्येक ‘मैं’ दूसरे व्यक्ति के लिए ‘वह’ (या ‘तू’) भी होता रहता है. मुश्किल तब आती है, जब ‘मैं’ के साथ हमारा खास लगाव-जुड़ाव पनप जाता है. इस पर कोई चोट बर्दाश्त नहीं होती. इसका हमें झूठा अभिमान भी होता है. इस अहंकारी पहचान को हम सतत विस्तार देना चाहते हैं. नाम, पद, वस्त्र, आभूषण आदि जुटा-जुटा कर इसे जीवन भर यथा संभव संवारते-सजाते रहते हैं, इसे अलंकृत करते रहना हमारा व्यसन हो जाता है. चूंकि ये सारे अलंकरण ‘मैं’ से जुड़े होते हैं. हम जो कुछ प्राप्त करते हैं, शंकराचार्य के शब्दों में जो ‘उपाधियां हैं’, वे तो हम कतई नहीं होते हैं. हमारी ‘अटैचमेंट’ तो जरूर हैं पर हम उनसे अलग हैं. जैसे कोई पुस्तक मेरी हो सकती है पर मैं पुस्तक थोड़े ही हूं. हाथ भी मेरा है, और पैर भी मेरा पर मैं हाथ और पर तो नहीं हूं.
दूसरी ओर ‘तू’ हमारे अपने ‘मैं’ से छोटा और हीन होता जाता है. हम अपने मैं की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए तू को निकृष्ट सिद्ध करने को पिल पड़ते हैं. इस तू तू, मैं मैं का परिणाम होती है हिंसा. तब कलह, संघर्ष और युद्ध की ज्वाला धधकने लगती है, और वाचिक या शारीरिक स्तर पर मैं अपने आगे के तुम को यातना देने और सताने का कम शुरू करता है. इससे उसके भीतर बैठे अहंकार को बड़ा सुख-चैन मिलता है. आज यह स्थिति पारिवारिक, सामुदायिक और राजनैतिक हर तरह के सामाजिक परिवेश में पैदा हो रही है. सब कोई एक दूसरे को पटकनी देने को तैयार बैठा है. कुछ नहीं तो रस लेकर इसका नजारा देखने को लोगों का मन आतुर हुआ जा रहा है. वैमनस्य को हवा देती इस प्रवृत्ति को हम प्राय: साक्षी भाव से जनसंचार माध्यमों में अनुभव करते हैं.
मानव स्वभाव की इस कमजोरी से बचने के लिए भारत के विचारकों ने बड़े उपाय किए. गृहस्थ के लिए प्राणियों के पालन के लिए त्याग का प्रावधान हुआ. गुरु , पिता, माता, और प्राणियों के प्रति कर्तव्य के लिए मनुष्य के लिए ऋण की व्यवस्था की गई. जितनी जरूरत हो उतना ही रखने के लिए अपरिग्रह पर जोर दिया गया. दूसरों को खिला कर खुद खाने का निर्देश दिया गया. ‘परोपकार’ को पुण्य और बड़प्पन में शुमार किया गया. योग में यम और नियम का प्रावधान किया गया. महात्मा बुद्ध ने शील की देशना की. गांधी ने अपने तीन बंदरों के साथ हिदायत दी कि न बुरा देखो, न बुरा सुनो और न बुरा बोलो. देखें तो पाएंगे कि दूसरे के दु:ख से दुखी होना (परदु:ख-कातरता), करु णा और दया की भावनाएं अपने मन में बनाए रखना, दीन-दुखियों की सेवा करना कुछ ऐसे सात्विक सार्वभौमिक विचार हैं, जिनका सभी धर्मो में बड़ा बखान किया गया है. कर्ण और दधीचि की कथा याद करते हुए पंक्तियां याद कर सकते हैं: ‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे’. अतिथि को देवता मानना और दुनिया को कुटुंब कहने का भी भाव यही था कि मनुष्य को अपने स्व का विस्तार करना चाहिए. पर आज सामाजिक जीवन क्रूर स्वार्थ के अधीन होता जा रहा है.
भगवद्गीता में कृष्ण की सीख थी कि जो अपने ही तरह दूसरों को भी देखता है, उसी का देखना वास्तव में देखना है (आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स पश्यति). यह भी कहा गया कि अपने से प्रतिकूल आचरण दूसरे के साथ नहीं करना चाहिए अर्थात हमें यह मान कर व्यवहार करना चाहिए कि जो हमें स्वयं को अच्छा लगता है, या बुरा लगता है, वैसा ही दूसरे को भो अच्छा या बुरा लगता है.
हम जो दुनिया अपने इर्द-गिर्द रच रहे हैं, उसमें आत्मविभ्रम के शिकार होकर केवल भेद ही देखते हैं. दुर्भाग्यवश सारा का सारा पश्चिमी ज्ञान मनुष्यों के बीच अधिकाधिक भेद और भिन्नता पर ही जोर देता रहता है. हमारी शिक्षा में भी आरंभ से ही प्रतिस्पर्धा का बोलबाला बना रहता है. हम सहज पारस्परिकता, परस्पर-निर्भरता की जगह आक्रामकता और आत्मश्लाघा को ही प्रश्रय देते चल रहे हैं, जिसका परिणाम आये दिन घर-बाहर बढ़ती हिंसा के रूप में दिखाई पड़ रहा है. एक अच्छे समाज के लिए चरित्र-निर्माण का भी अवसर मिलना चाहिए. शिक्षा की प्रक्रिया इस तरह आयोजित हो कि चरित्र और गुणों के विकास का अवसर मिले. बंधुत्व, समानता और समता को स्थापित करने लक्ष्य तभी पाया जा सकेगा.
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