नेपाल : सतर्क रहे भारत
कम्युनिस्ट दल के नेता के. पी. ओली नेपाल के नये प्रधानमंत्री होंगे. वामपंथी गठबंधन की ऐतिहासिक जीत ने पूर्व प्रधानमंत्री ओली के नेतृत्व में इस महीने के अंत तक वामपंथी सरकार बनने की राह खोल दी है.
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प्रचंड की दखलंदाजी भी ज्यादा नहीं होगी. दोनों के दलों के आकड़ों में बहुत का अंतर है. प्रचंड न ही तख्ता पलट की कोशिश कर पाएंगे जैसा कि पिछली बार उनने किया था. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि अक्टूबर में वामपंथियों का गठबंधन चीन के इशारे पर हुआ है. इस बात की पुष्टि संयुक्त राष्ट्र द्वारा भी की गई. इसलिए ओली प्रधानमंत्री बनने के उपरांत चीन को कर्ज अदायगी करने की कोशिश करेंगे. जो संधि चीनी कंपनियों से छीन ली गई थी, ओली पुन: उसको बहाल करेंगे. साथ ही, चीन नेपाल को भारत से दूर खींचने की पहल करेगा. देखना है कि क्या ओली भारत विरोधी तेवर के साथ नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था को चलाने में सफल हो पाते हैं? भारत विरोध को हवा देकर चीन नेपाल की हर जरूरतों को पूरा कर पाता है?
नेपाल की राजनीतिक उठापटक की वजह से संवैधानिक समस्या खड़ी हो गई थी. 2006 के बाद से निरंतर नेपाल गर्त की ओर अग्रसर था. पहले से वामपंथियों के खूनी इरादों से लाखों की जान जा चुकी थी. राजशाही से लोकतांत्रिक परिवर्तन अत्यंत ही दुखदायीपूर्ण था. 2008 में पहली संविधान सभा चुनी गई. इसका कार्यकाल दो साल के लिए था. राजनीतिक असहमति के कारण बार-बार कार्यकाल बढ़ाने के बावजूद नया संविधान देने में संविधान सभा नाकाम रही. अंतत: नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2012 में निर्णायक दखल दिया. इसी वजह से 2013 में नई संविधान सभा चुनी गई. दूसरी संविधान सभा ने दो साल के भीतर 2015 में ही नया संविधान बना कर देश को सौंप दिया. संशोधनों की यह मांग उन तमाम नस्लीय एवं भाषायी समूहों द्वारा की जा सकती है, जो साल 2015 में अंगीकृत नये संविधान के विरुद्ध आंदोलन करते रहे हैं. नेपाल का चुनाव कई कारणों से महत्त्वपूर्ण हैं. यह महत्त्व नेपाल के राजनीतिक कारणों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका बाहरी महत्त्व भी है. भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा और रस्साकस्सी के रूप में. नेपाल का बफर स्टेट होना उसके सामरिक महत्त्व को बहुमूल्य बना देता है. नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था को समझना इसलिए आसान नहीं है कि बाहरी शक्तियां व्यवस्था पर हावी हैं. 2015 के संविधान के बाद जो बवाल हुआ, वह निवर्तमान प्रधानमंत्री ओली के कारण हुआ था.
नेपाली संविधान की सारी विसंगतियों के लिए भारत को दोषी माना गया. 2015 के उपरांत नेपाल की राजनीति में कई हिचकोले आए. प्रचंड ने प्रधानमंत्री की कुर्सी हथियाने के लिए नेपाल कांग्रेस पार्टी से हाथ मिला लिया. संयुक्त सरकार भी बनी 6 महीने के लिए. लेकिन इसी बीच में दहल की सीपीएन (माओवादी सेंटर) और ओली की सीपीएन-यूएमएल के बीच गठबंधन हो गया. दूसरी तरफ लोकतांत्रिक गठबंधन के अंतर्गत नेपाल कांग्रेस पार्टी और प्रजातंत्र पार्टी की बीच समझौता हुआ है. मधेसी पार्टयिां भी कांग्रेस को मदद करेंगी. अर्थात संघर्ष दो दलों के गठबंधन की बीच है. लेकिन इस बात की ज्यादा उम्मीद है कि सरकार साम्यवादी गठबंधन की बनेगी, जिसके प्रधानमंत्री प्रत्याशी पूर्व प्रधानमंत्री ओली हैं, जिनकी राजनीति का मुख्य आधार भारत विरोध की राजनीति है. जिस तरीके से साम्यवादी दलों के बीच गुपचुप समझौता हुआ है, वह महज प्रचंड और ओली की स्वाभाविक मित्रता नहीं है, बल्कि मित्रता बलपूर्वक बनाई गई है. यह सब कुछ चीन के इशारों पर किया गया है.
ओली ने नेपाल के पहाड़ी इलाकों में उग्र राष्ट्रवाद की नींव रखने की कोशिश की है जो भारत विरोध पर टिकी है. ओली के प्रधानमंत्री बनने से भारत और नेपाल के संबंध में तीखापन आएगा, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन नेपाल का प्रधानमंत्री बनने वाला हर व्यक्ति भली भांति समझ चुका है कि भारत के समर्थन के बिना गद्दी पर बैठना मुमकिन नहीं है. प्रचंड को भी यह बात 2008 में समझ नहीं आई थी लेकिन 2015 में बखूबी समझ गए थे. दूसरी समस्या यह है कि साम्यवादियों के बीच सत्ता की लड़ाई से इनकार नहीं किया जा सकता. प्रचंड पुन: पाला बदल सकते हैं, अगर नेपाली कांग्रेस और मधेसी पार्टी चुनाव के दूसरे चरण में बहुत बेहतर प्रदशर्न करते हैं. भारत के लिए नेपाल का चुनाव कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है. चीन की हस्तक्षेपवादी और उग्र नीति भारत के लिए मुश्किलें पैदा कर सकती है, इसके लिए जरूरी है कि नेपाल में मजबूत सरकार हो चाहे कोई भी दल या व्यक्ति प्रधानमंत्री हो.
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