गुजरात : अर्थव्यवस्था के बरक्स

Last Updated 20 Dec 2017 01:33:56 AM IST

भाजपा ने गुजरात में 99 सीटें लेकर सरकार बचा ली है, और हिमाचल प्रदेश में धूमधाम से सरकार बनाने के इंतजाम कर लिए हैं.




गुजरात : अर्थव्यवस्था के बरक्स

इतना ही इन चुनावों का निहितार्थ नहीं है. इन चुनावों के आंकड़ों में कई ऐसी तस्वीरें छिपी हैं, जिन्हें पढ़ना और उनके मतलब तलाशना महत्वपूर्ण है. इन तस्वीरों का ताल्लुक मई, 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव से तो है ही, भाजपा के कब्जे वाले बड़े राज्यों-राजस्थान, मध्य प्रदेश और छोटे राज्य छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों से भी है. इन सब चुनावों से ऊपर अगले अठारह महीनों में होने वाले 2019 के लोक सभा चुनाव से भी है. इसलिए गुजरात विधान सभा चुनावों के निहिताथरे को समझना पूरी अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी है.
गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों की मतगणना के वक्त साढ़े नौ के आसपास एक वक्त ऐसा आया था, जब तमाम टीवी चैनल बताने लगे थे कि मुकाबला बराबरी का है, बल्कि कुछेक मिनट को दोनों राज्यों में कांग्रेस की सीटें भाजपा से आगे चल रही हैं. मुंबई शेयर बाजार का सूचकांक यह सुनकर दहल गया और पांच सौ बिंदुओं से ज्यादा गिर गया. बाद में भाजपा की जीत पक्की हुई तो सूचकांक बढ़ोतरी पर बंद हुआ. सेंसेक्स एक साल में 27 प्रतिशत से  ऊपर चढ़ चुका है, इतना इजाफा भारत के सफलतम किसान की आय में भी एक साल में नहीं हुआ होगा. खेती समस्या में है, यह बात गुजरात के परिणाम बताते हैं. कपास समेत तमाम कृषि उत्पादों की कीमतों को लेकर गुजरात का किसान परेशान है, यह बात गुजरात के रिजल्ट बताते हैं. भाजपा को 99 सीटें मिली ही. 73 शहरी इलाकों की 56 सीटें भाजपा ने लीं पर 109 ग्रामीण इलाकों की सिर्फ  43 सीटें उसे मिली हैं. विश्लेषण से साफ होता है कि गुजरात के शहरी इलाकों में भाजपा का सफलता-स्ट्राइक रेट है 76.71 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में है 39.44 प्रतिशत.

अकादमिक शब्दावली में इसे यूं समझें कि शहरों में भाजपा विशेष योग्यता से पास हो गई है पर ग्रामीण इलाकों में मुश्किल से बहुत मुश्किल से पास होती दिख रही है. खेती-किसानी से जुड़े मसलों पर सिर्फ  बयान काफी नहीं है, ठोस काम जरूरी है, और जल्द जरूरी है. पीएम मोदी लगातार बयान दे रहे हैं कि 2022 तक किसानों की आमदनी दो गुनी कर दी जाएगी. पर जमीन पर कुछ ऐसे एक्शन दिखाई नहीं दे रहे हैं, जिनसे पता चले कि किसान की आमदनी पांच सालों में दोगुनी हो जाएगी. सेंसेक्स जहां लगातार चढ़ रहा हो और खेती लगातार डूब रही है, वहां अर्थव्यवस्था में एक दरार साफ तौर पर दिखाई पड़ने लग जाती है. भाजपा को तमाम बधाइयां स्वीकार करके आत्ममंथन में लगना चाहिए कि किसानों की स्थिति बेहतर कैसे की जाए? मध्य प्रदेश कुछ समय पहले किसान आंदोलन और उसमें हिंसा देख चुका है. राजस्थान के हाल भी बहुत अलग नहीं हैं. शाइनिंग इंडिया के चक्कर में 2004 में भाजपा ऐसे ही डूबी थी, शहरी इलाकों में, चढ़ने सेंसेक्स में इंडिया बहुत शाइन कर रहा था, पर जमीन पर परेशानियां कम नहीं हुई थीं, तो मतदाता खासकर ग्रामीण मतदाता ने भाजपा सरकार की बत्ती बुझा दी थी.
गहराई से देखें तो जो बवाल-सवाल हाल के वक्त से राजनीति के दरपेश हैं, उनका ताल्लुक खेती से है. परंपरागत खेती पर निर्भर जातियां आरक्षण की मांग कर रही हैं. हरियाणा में जाटों को लें या गुजरात में पटेलों को. ये खेतिहर जातियां हैं. खेती में प्रतिफल बचा नहीं है. नौकरियों में कंपटीशन विकट हो गया है. प्राइवेट कालेजों में इंजीनियरिंग पढ़ने में लाखों खर्च हो रहे हैं, फिर भी नौकरी की गारंटी नहीं है. हार्दिक पटेल के साथ गुजरात में ऐसे कई नौजवान जुड़े हैं, जिन्होंने लाखों लगा दिए प्राइवेट डिग्री हासिल करने में, पर नौकरी नहीं है क्योंकि कंपनियां उन लोगों को इस काबिल नहीं मानतीं कि उन्हें नौकरी दी जा सके. निजी नौकरी है नहीं, सरकारी नौकरी बहुत कम हैं. तो फिर आरक्षण दिखाई पड़ता है. आरक्षण का आधार ताकतवर जातियां अपनी संख्या को बनाना चाहती हैं कि हमारी तादाद इतनी तो आरक्षण हमें ही मिलना चाहिए. खेती-किसानी में ठीकठाक प्रतिफल आ रहा होता तो तमाम तरह के आरक्षणों की मांग इतनी मुखर नहीं होती.
मोटे तौर पर कई भारतों की तस्वीर उभरती है गुजरात के चुनावों में. उन भारतों में विकट दरार दिखाई पड़ती है. सूरत जैसे औद्योगिक शहर ने जीएसटी की तमाम परेशानियों के बावजूद भाजपा में अपना भविष्य देखा. ग्रामीण इलाकों को कांग्रेस में अपना भविष्य दिखाई पड़ा. जातिगत समीकरण अपनी जगह हैं, पर अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण हिस्से खेती पर ठोस चिंतन कर्म का वक्त अब आ गया है. खेती से जुड़ी समस्याएं सिर्फ गुजरात में नहीं हैं. भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना लगातार भाजपा सरकार को महाराष्ट्र में हो रही किसान-आत्महत्याओं पर घेरती रहती है. खेती-किसानी के मसलों पर संसद सत्र बुलाया जाए और हर पार्टी इस संबंध में सुझाव रखे. आलू के भाव बढ़ते हैं एक साल, दूसरे साल आलू बहुतायत में पैदा हो जाते हैं. किसान परेशान हो जाता है. गेहूं के भाव बढ़ते हैं, तो किसान का फायदा हो सकता है, पर खाद्य साज-सामान कीमतों के भाव हद से ज्यादा बढ़ जाएं, यह सरकार अफोर्ड नहीं कर सकती. गेहूं आयात करने के फैसले हो जाते हैं, गेहूं के भाव बढ़ना रु क जाते हैं. किसान का नुकसान होता है. लगातार इतना होता है कि वह फिर तमाम किस्म के कजरे की माफी की मांग करता है.
उसकी अलग राजनीति है. कोई सरकार कर्ज माफ करती है, तो अंतत: करदाता की जेब से ही जाता है. यानी किसानों को बैसाखियों के बजाय कुछ ऐसा इंतजाम सुनिश्चित हो कि उसे अपने उत्पाद का लाभदायक दाम मिल पाए. चुनाव एक तरह से चेतावनी देते हैं कि शहरों में राजनीतिक सफलताएं हासिल कर लेना अलग बात है पर ग्रामीण क्षेत्रों की खेती-किसानी की समस्याएं जस-की-तस बनी हुई हैं. किसानों की आय भी सेंसेक्स की तरह पचीस प्रतिशत बढ़े तो यहां से कर्जमाफी की मांग शायद ना आए. गुजरात चुनाव का संकेत बहुत साफ है कि खेती को सेंसेक्स की उठान की तरह फायदेमंद बनाना ही किसी भी राजनीतिक पार्टी के हित में है. वरना शहरी इलाकों तक सीमित शाइनिंग इंडिया राजनीतिक अंधेरा मचा सकता है.

आलोक पुराणिक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment