मुद्दा : निर्यात मोर्चे पर अवसर

Last Updated 21 Dec 2017 06:25:19 AM IST

भारतीय निर्यातकों के लिए राहत की बात है कि सरकार ने उनके लिए अपनी पंचवर्षीय व्यापार नीति की मध्यावधि समीक्षा के उपरांत 8,450 करोड़ रुपये के उदार प्रोत्साहन की घोषणा की है.


मुद्दा : निर्यात मोर्चे पर अवसर

2015 से आरंभ पंचवर्षीय व्यापार नीति के तहत मंसूबा बांधा गया है कि 2020 तक वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात 900 बिलियन डॉलर के स्तर पर पहुंचाया जाए.

हालांकि 2014-15 से 2016-17 के मध्य निर्यात में गिरावट दर्ज की गई. यह 468 बिलियन डॉलर से कम होकर 437 बिलियन डॉलर रह गया. सच तो यह है कि भारत का बाह्य व्यापार प्रदर्शन इस कदर विकट रहा है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष की प्रथम तिमाही में चालू खाते का घाटा चार वर्षो में  2.6 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया.

इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि वैश्विक बाजार में तमाम अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद निराशाजनक रुझान बना हुआ है. ऐसे में घरेलू कारकों में ही बढ़ते व्यापार घाटे के कारणों को खोजा जा सकता है. स्पष्ट है कि जीएसटी के कार्यान्वयन को लेकर छाई अनिश्चितता भी काफी हद तक इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है.

बहरहाल, स्थिति चिंतनीय है क्योंकि जीएसटी के तहत निर्यातकों को रिफंड किए जाने की प्रक्रिया संबंधी मुद्दे व्यापारिक गतिविधियों पर असर डाल रहे हैं. इसलिए मध्यावधि समीक्षा में दिए गए प्रोत्साहन से उम्मीद की जानी चाहिए कि कुछ हद तक निर्यात के मोर्चे पर राहत मिलेगी. हालांकि भले ही इस प्रकार की अल्पकालिक राहत महत्त्वपूर्ण होती हो, लेकिन पूछा जाना तो बनता ही है कि क्या इत्ती भर राहत पर्याप्त है? आखिर विश्व में कहीं भी कभी भी ऐसा नहीं हुआ है कि किसी भी देश की विकास दर निर्यात में 15 या उससे ज्यादा की वृद्धि दर के बिना 7 प्रतिशत के स्तर पर लंबे समय तक बनी रही हो.

विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात 2011 के बाद से 10 प्रतिशत के स्तर से ऊपर नहीं पहुंचा है. जाहिर है कि कुछ ऐसे ढांचागत मुद्दे हैं, जो  भारत के बाह्य व्यापार के मोर्चे पर रुकावट बने हुए हैं. इस तथ्य की चाहें तो हम भारत के अग्रणी निर्यात क्षेत्रों-आभूषण, चर्म उत्पाद और वस्त्र-में लंबे समय से बने हुए रुझानों की पड़ताल करके भी कर सकते हैं. यह देख कर चिंता होती है कि इन सभी क्षेत्रों में भारत को जो प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त इस सदी के शुरू में हासिल थी, अब न के बराबर रह गई है.

उस पर ये क्षेत्र बेहद श्रमोन्मुख हैं, और इनमें प्रतिस्पर्धात्मक लाभ का लोप हो जाने का मतलब है अर्थव्यवस्था में रोजगार-सृजन का लोप हो जाना. प्राय: तर्क रखा जाता है कि भारत की कारोबारी प्रतिस्पर्धा को धार देने की गरज से रुपये की मजबूती को अवमूल्यन के जरिये कम किया जाए ताकि विश्व बाजार में भारतीय वस्तुएं एवं सेवाएं बनिस्बत सस्ती होने के चलते प्रतिस्पर्धा में टिकी रह सकें. लेकिन हाल के दिनों में देखा गया है कि मुद्रा विनिमय दर और वास्तव में प्रभावी मुद्रा विनिमय दर के रुझानों के समक्ष यह तर्क टिक नहीं पाता. बीते वित्तीय वर्ष में ये दोनों पैमाने स्थिर रहे बल्कि कहें कि बीते अगस्त माह में इनमें मामूली गिरावट आई. फिर, इस तर्क में इसलिए भी कोई ज्यादा दम नहीं है कि निर्यात प्रतिस्पर्धात्मकता मुद्रा के बजाय श्रमबल की उत्पादकता से परिभाषित होती है.

भारत के नीति-निर्माताओं को जान लेना होगा कि भारत के समक्ष व्यापार के मोर्चे पर जो चुनौतियां हैं, वे ढांचागत प्रकृति की हैं, जिसका समाधान हड़बड़ी में तो नहीं ही किया जा सकता. बेशक, जीएसटी के प्रभाव जैसी तात्कालिक चुनौतियों से लागत संबंधी प्रोत्साहनों से निपटा जा सकता है, लेकिन यह भी जरूरी है कि इनके साथ ही दीर्घकालिक समाधान भी खोजे जाएं. इस कड़ी में उन क्षेत्रों की पहचान किया जाना आवश्यक है, जहां भारत अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है.

पहचाने गए इन क्षेत्रों में भारत को प्रतिस्पर्धी  बनकर उभरना होगा. इसके लिए बाजार विकास संबंधी शोध के साथ ही शोध एवं विकास की दिशा में बढ़ना होगा. ध्यान रखना होगा कि भारत में साजोसामान के पारगमन संबंधी ढांचा अच्छी स्थिति में नहीं है. फिर, जिन भी देशों से उसके व्यापार समझौते हैं, उनमें से ज्यादातर घाटे वाली प्रकृति के हैं. ध्यान रहे कि चीन तेजी से विश्व में वस्तु विनिर्माण हब के रूप में अपना रुतबा और हैसियत खोता जा रहा है. भारत के लिए अपने निर्यात मोर्चे को चाक-चौबंद करने का इससे बेहतर मौका नहीं हो सकता. प्रयास करके वह विश्व बाजार में अपने लिए दरपेश माकूल हालात से खासा लाभान्वित हो सकता है.

रणधीर तेजा चौधरी


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