परत-दर-परत : मिथक भी इतिहास होता है

Last Updated 26 Nov 2017 05:28:33 AM IST

हमारे विद्वानों के अनुसार पद्मावती नाम की कोई रानी थी, या नहीं, यह संदेहास्पद है.


परत-दर-परत : मिथक भी इतिहास होता है

उनका कहना है कि अलाउद्दीन खिलजी के काल और मलिक मुहम्मद जायसी के काल के बीच तीन सौ वर्षो का फासला है, और जब जायसी ‘पद्मावती’ नाम का महाकाव्य लिख रहे थे, तब उनके सामने कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं था. सिर्फ  किंवदंतियां थीं, जिन्हें उन्होंने अपनी कृति में आवश्यकतानुसार ढाल दिया. फिर, यह एक रूपक काव्य है, जिसमें सभी पात्र किसी न किसी धारणा का प्रतिनिधित्व करते हैं. जायसी सूफी थे. सूफी सिद्धांतों को कविता में पिरोना चाहते थे. इसलिए ‘पद्मावती’ में उन्होंने जिन घटनाओं का उल्लेख किया है, उन्हें इतिहास मान लेने का कोई कारण नहीं है.

लेकिन क्या पद्मावती का अस्तित्व इसी बात से खत्म हो जाता है कि इतिहासकारों की नजरों में उसके होने का कोई सबूत नहीं दिखाई देता? ईश्वर के होने का कौन-सा सबूत पेश किया जा सकता है? तथ्य यही है कि ईश्वर नहीं है, फिर भी वह करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित करता है. इस प्रसंग में सबसे अच्छा उदाहरण भूत-प्रेत हैं, जो कुछ के अनुसार भ्रम हैं, तो बहुतों की निगाह में वास्तविक. जो भूत-प्रेत को नहीं मानता, वह किसी भी परिस्थिति में भूत से नहीं डरेगा, लेकिन जो मानते हैं, वे अंधेरी रात में पेड़ से पत्ते गिरने पर भी डर जा सकते हैं.

जब कोई पद्मावती पर फिल्म बनाता है, या उपन्यास लिखता है, तो जरूरी नहीं कि इतिहास को ही प्रस्तुत करे. इतिहास लिखना इतिहासकारों का काम है, लेखक, चित्रकार और फिल्म निर्माता तो कल्पना से खेलते हैं, जो हमें इतिहास से ज्यादा प्रभावित कर सकती है. क्या कोई दावा कर सकता है कि ‘गोदान’ का होरी कोई वास्तविक मनुष्य था? उसकी जगह किस वास्तविक व्यक्ति के जीवन पर उपन्यास लिखा जा सकता था, जो उस समय की वास्तविकता को ज्यादा प्रभावशाली ढंग से चित्रित कर सके? इसी तरह ‘रश्मिरथी’ का कर्ण ठीक वही नहीं है, जो महाभारत में हैं. लेकिन कल्पना की भी एक सीमा है. जहां इतिहास एकदम स्पष्ट है, वहां कल्पना की छूट नहीं ली जा सकती. उदाहरण के लिए कोई फिल्म दिखाती है कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के बाद भी महात्मा गांधी का सक्रिय सेक्स जीवन था, या उन्होंने इन-इन स्त्रियों से यौन संबंध स्थापित किया था, तो यह किसी के गले नहीं उतरेगा. चूंकि मिथक इतिहास नहीं होते पर उनमें वजन इतिहास से भी ज्यादा होता है, इसलिए मिथकों के साथ भी ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की जा सकती.

लेकिन मैं मानता हूं कि किसी को भी सचाई के साथ-साथ अपनी कल्पना को भी लिखने या चित्रित करने का अधिकार है. उदाहरण के लिए कोई गांधी को खलनायक और गोडसे को नायक के समान मानता है, तो कोई कारण नहीं है कि उसे अपनी मान्यता को लिखने या उसके आधार पर चित्र या फिल्म बनाने से रोका जाए क्योंकि कल्पना भी बदलती रहती है, और इतिहास भी. रामचंद्र शुक्ल के पहले मलिक मुहम्मद जायसी को कितने लोग जानते थे? हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई के पहले किसे इस महान सभ्यता का पता था? औरंगजेब क्रूर था, अपने भाइयों की हत्या कर तख्त पर बैठा था, उसने जजिया कर लगाया था, लेकिन इतिहासकार बताते हैं कि उसने अनेक मंदिरों के लिए अनुदान भी दिया था. इसलिए हर किसी को छूट होनी चाहिए कि वह जो जानता या समझता है, उसे व्यक्त कर सके. अपने प्रेम को भी, अपनी घृणा को भी. रोक सिर्फ  ऐसी सामग्री पर लगाई जा सकती है, जिसके पीछे किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति विद्वेष हो.

क्या संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती के बारे में कहा जा सकता है कि उसमें हिन्दू समाज के प्रति या राजपूतों के इतिहास के प्रति विद्वेष प्रकट किया गया है? लगता है कि फिल्म के बारे में भ्रम अधिक फैलाया गया है, और सचाई कम बतलाई गई है. राजस्थान की श्री करणी सभा के अध्यक्ष अपने को पद्मावती का वंशज बतलाते हैं, चाहते हैं कि उनकी स्वीकृति लेकर ही पद्मावती पर फिल्म बनाई जाए. अजीब इच्छा है. वंशज होने मात्र से किसी ऐतिहासिक या मिथकीय चरित्र पर किसी का एकाधिकार नहीं हो जाता. प्रसिद्ध व्यक्ति सार्वजनिक हो जाता है, उसके बारे में कोई भी राय व्यक्त कर सकता है.

पद्मावती का दुर्भाग्य है कि भय और आतंक का ऐसा वातावरण बना दिया गया है कि फिल्म के रिलीज होने पर ही एक तरह से रोक लग गई है. निश्चय ही यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भीड़वादी प्रहार है. हमारे देश में एक सरकारी संस्था है, जिसके द्वारा प्रमाणित किए जाने के पहले किसी भी फिल्म का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया जा सकता. इसलिए जो पद्मावती फिल्म के विरु द्ध शोर मचा रहे हैं, धमकियां दे रहे हैं, वे हवा में लाठी भांज रहे हैं. सिर्फ  काल्पनिक संभावना के आधार पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती. सेंसर बोर्ड फिल्म को मान्यता दे देता है, तो कोई कारण नहीं कि शोर मचाया जाए. भंसाली का कोई कर्तव्य नहीं बनता कि फिल्म रिलीज होने के पहले सेंसर बोर्ड के साथ-साथ किसी नाराज समूह की स्वीकृति भी प्राप्त करें. यह ब्लैकमेल को मंजूर करने की तरह होगा.

राजकिशोर


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