भारत : ’चतुर्भुज‘ का जाल

Last Updated 18 Nov 2017 04:47:32 AM IST

अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के बीच चतुर्भुजीय गठजोड़ एक बार फिर हो रहा है.


भारत : ’चतुर्भुज‘ का जाल

मनीला में हाल में हुए आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान, इस सम्मेलन के हाशिए पर इन चारों देशों के अधिकारियों की एक बैठक आयोजित की गई. आगे चलकर, सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अलग-अलग तीनों देशों के नेताओं से बातचीत की.
चारो भागीदार देशों की अधिकारी स्तर की वार्ता की ओर से कोई संयुक्त वक्तव्य जारी नहीं किया गया है. इनमें से हरेक देश ने बयान देकर इस बैठक के नतीजों के बारे में बताया है. बहरहाल, चारों वक्तव्यों में समान बात यह कही गई है कि सहमति से यह तय किया गया कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र को, व्यापार और नौवहन के लिए खुला और मुक्त रखा जाए और इस क्षेत्र में शांति व स्थिरता के लिए हरेक खतरे का मुकाबला किया जाए.

इस तरह यह स्वत: स्पष्ट था कि साफ तौर पर इसका मकसद चीन की बढ़ती ताकत और प्रभाव की काट करना ही है. एशिया-प्रशांत क्षेत्र के चार ‘जनतंत्रों’ के बीच चतुर्भुजीय गठजोड़ के विचार को अमेरिका लगातार आगे बढ़ाता आया है. अब से दस साल पहले, 2007 में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने पहली बार इस विचार को पेश किया था. उस समय, 2007 की मई में, मनीला में आसियन क्षेत्रीय शिखर सम्मेलन में, चारों देशों के नेताओं ने मुलाकात की थी. इससे पहले अमेरिका, जापान और भारत ने संयुक्त नौसैनिक अभ्यास किया था. बहरहाल, चीन की आपत्तियों के चलते चार देशों का यह गठजोड़ आगे नहीं बढ़ पाया. चतुर्भुजीय गठजोड़ इसलिए नहीं हो पाया कि इसके साल भर के अंदर-अंदर आस्ट्रेलिया में सरकार बदल गई.

वहां के नये प्रधानमंत्री केविन रुड चाहते थे कि आस्ट्रेलिया चीन के साथ घनिष्ठतर व्यापारिक और आर्थिक रिश्ते विकसित करे. इसलिए, आस्ट्रेलिया की सरकार ने एलान कर दिया कि उसकी ऐसे गठजोड़ का हिस्सा बनने में दिलचस्पी नहीं है. इसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने भी इस मामले को आगे बढ़ाना उपयुक्त नहीं समझा. बहरहाल, दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी, शिंजो आबे के जापान में दोबारा सत्ता में आने के बाद, जापान एक बार फिर चतुर्भुजीय गठजोड़ के विचार को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने में जुट गया है. यूपीए सरकार के दौर में, जापान और अमेरिका के साथ त्रिपक्षीय सुरक्षा गठजोड़ कायम किया गया था. 2010 में मालाबार नौसैनिक अभ्यासों में आस्ट्रेलिया समेत चारों देशों ने हिस्सा लिया था. अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने एशिया के लिए अपनी ‘धुरी’ की घोषणा की थी और अपने नौसैनिक बलों का 60 फीसद एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भेज दिया गया. भारत को पटाया जा रहा था कि इस धुरी का आधार बन जाए. उसके बाद से भारत पर इसके लिए बढ़ता हुआ दबाव डाला जा रहा है कि अमेरिका के साथ बाकायदा सैन्य गठजोड़ कायम कर ले.

मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद, 2015 की जनवरी में, राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों ने एशिया-प्रशांत और हिन्द महासागर क्षेत्र पर एक संयुक्त विजन दस्तावेज पर दस्तखत किए थे. इस दस्तावेज में भारत औपचारिक रूप से एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की रणनीति का साझीदार बन गया और उसने अपनी ‘एक्ट एशिया पॉलिसी’ को, अमेरिका की एशिया धुरी के साथ जोड़ने का वादा किया. भारत के चतुर्भुजीय सुरक्षा गठजोड़ कायम करने का मतलब इसका एलान करना है कि उसने चीन की घेरेबंदी की अमेरिकी रणनीति को अपना लिया है. जापान और आस्ट्रेलिया, अमेरिका  के दो प्रमुख सैन्य गठजोड़ सहयोगी हैं. भारत ने अब खुद को इसी श्रेणी में पहुंचा दिया है. अमेरिका, एशिया-प्रशांत क्षेत्र को हिन्द-प्रशांत क्षेत्र कहकर, भारत को खुश करना चाहता है. वह भारत को अपनी एशिया-प्रशांत रणनीति का केंद्र बनाने के जरिए, उसके अहंकार को सहलाना चाहता है. अमेरिका के रणनीतिक सिद्धांत में भारत, चीन का कुंजीभूत जवाब है. इसके साथ ही अमेरिका के इसमें वाणिज्यिक हित भी हैं कि भारत को अपना सैन्य सहयोगी बनाकर, उसे बड़े पैमाने पर अपने हथियार बेचे.

सचाई यह है कि इस चतुर्भुजीय गठजोड़ में भारत के तीनों सहयोगियों के चीन के साथ घनिष्ठ आर्थिक और व्यापारिक रिश्ते हैं. चीन के साथ अपने झगड़ों के बावजूद, उनकी अर्थव्यवस्थाएं अविभाज्य रूप से चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत के साथ बंधी हुई हैं. 2016 में अमेरिका-चीन व्यापार पूरे 650 अरब डालर का था. अमेरिका  पर सबसे ज्यादा कर्जा भी चीन का ही है. ट्रेजरी बांड, बिल आदि के रूप में अमेरिका पर चीन का 12.4 खरब डालर से ज्यादा का कर्जा है, जो अमेरिका  के सार्वजनिक ऋण का 10 फीसद होता है. दूसरी ओर, अमेरिका  ने चीन में बहुत भारी निवेश किए हुए है. यह भारत के हित में होगा कि चीन के साथ, जोकि विश्व अर्थव्यवस्था को चलाने वाला इंजन बना हुआ है, व्यापारिक और आर्थिक रिश्ते बढ़ाए. इसके बावजूद, विवेकपूर्ण स्वहित में काम करने के बजाए, अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा भारत का इस्तेमाल उस कंधे के तौर पर किया जा रहा है, जिस पर रखकर वे चीन पर गोली-गोले दागना चाहते हैं. भारत वही खेल खेल रहा है, जो अमेरिका उससे खिलवाना चाहता है.

वह दक्षिण चीन सागर में, जिसकी भारत के लिए कोई रणनीतिक प्रासंगिकता नहीं है, एक रुख अपनाने के जरिए, चीन के साथ अपने रिश्तों में उलझनें पैदा कर रहा है. भारत जितना ज्यादा रणनीतिक-सैन्य पहलू से खुद को अमेरिका  के साथ बांधता जा जा रहा है, उतना ही चीन के साथ अपने रिश्ते बिगाड़ता जाता है. लेकिन, विचित्र बात यह है कि भारत तो चतुर्भुजीय गठजोड़ में शामिल होकर उनका यह काम कर रहा है, लेकिन इस गठजोड़ के उसके तीनों सहयोगी चीन के साथ अपने व्यापार और वहां अपने निवेशों से आर्थिक लाभ कमाना जारी रखे हुए हैं. पिछले सप्ताह राष्ट्रपति ट्रंप की चीन यात्रा के दौरान भी 250 अरब डालर के व्यापारिक समझौतों पर दस्तखत किए गए हैं. विराट ‘वन मोदी की रणनीतिक और विदेश नीति में ‘राष्ट्रवाद’ कहां है? ‘राष्ट्रवादी’ मोदी सरकार तो भारत की राष्ट्रीय संप्रभुता को गिरवी रखने और खुद को अमेरिका  के रणनीतिक हितों का मातहत बनाकर, भारत के राष्ट्रीय हितों के साथ समझौता करने में ही लगी हुई है.

प्रकाश करात


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