प्रसंगवश : आदि से इत्यादि

Last Updated 12 Nov 2017 05:08:24 AM IST

भारत में ‘आदिवासी’ समुदाय, जिन्हें आदिम, जनजाति, अनुसूचित जनजाति और वनवासी जैसे कई नामों से जाना जाता है, भारत के मूल निवासी यानी ‘आदि’ मानव हैं.


प्रसंगवश : आदि से इत्यादि

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आज सैकड़ों समुदायों के रूप में प्राय: जंगलों, पहाड़ों आदि दुर्गम स्थानों में प्रकृति की गोद में पलते-बढ़ते रहे हैं. इनका खान-पान, रहन-सहन, भाषा, धर्म, सब कुछ उनकी खास तरह की स्थानीय परिस्थितियों में पल्लवित और विकसित होते रहे. 

इन समुदायों का जीवन सभ्यों की कृत्रिम दुनिया से दूर था. चूंकि काफी हद तक आदिवासी आत्मसंभव जैसे थे, स्वयं में संतुष्ट भी रहते थे. ज्यादातर आदिवासी समुदाय वाचिक  या मौखिक परंपरा में ही चलते रहे. अतीत और भविष्य के आतंक से मुक्त वर्तमान में ही जीवित रहना पसंद करते और तात्कालिक मौखिक संवाद ही पर्याप्त हुआ करता, इसलिए उनकी भाषाओं की लिपि भी विकसित नहीं हो सकी. चूंकि कथित सभ्य समाज को उनकी सांस्कृतिक भिन्नता गंवारा न थी, और इसीलिए उन्हें मुख्यधारा या ‘मेन स्ट्रीम’ में शामिल करने की तीव्र मुहिम शुरू  हुई. उनके अस्तित्व की लड़ाई का एक नया अध्याय खुला. वे अपने ही घर में बेघर होने लगे, उन्हें विस्थापन का शिकार होना पड़ा. उनके ज्ञान-कौशल को अप्रासंगिक करार देते हुए या तो व्यर्थ माना गया या फिर संग्रहालय की वस्तु ठहराया गया. उनका अस्तित्व नये ढंग से परिभाषित होने लगा जिसमें वे हाशिए पर धकेले जाने लगे. आदिवासियों का जो भी अपना था, वह हीन और ओछा घोषित होने लगा.

धीरे-धीरे आदिवासियों को भी इन सबको छोड़ने में ही भलाई दिखने लगी. ऐसे में न केवल नये का आकषर्ण  बढ़ा  बल्कि जो उनका स्वयं का था, उसके प्रति विकर्षण का भी आरंभ हुआ. संस्कृति के संघात के साथ जो बदलाव शुरू हुए उनमें आर्थिक तत्व प्रधान होते गए. आदिवासियों को सुधारने और आधुनिकता के निकट ला कर आगे बढ़ाने के जो प्रयास शुरू हुए उनमें आधुनिक औपचारिक  शिक्षा की विशेष भूमिका थी. सोचा गया कि इसके द्वारा आदिवासी बच्चों को ऐसे संस्कार दिए जाएं ताकि वे उन्नति कर सकें. इस शिक्षा में उनके अपने परिवेश से भिन्न अध्ययन-विषय, अध्ययन-सामग्री, भाषा यानी सब कुछ उनके अपने संदर्भ से बेमेल था. उनकी पुस्तकों में न वे थे, न उनका समाज था, और न ही उनकी भाषा और संस्कृति थी. वे स्वयं को उससे जोड़ नहीं पाते थे.

आखिर, यह उनका अपना जीवन न था. न इसके लिए उनके घर-परिवेश से सहज-स्वाभाविक सहयोग-समर्थन ही मिल रहा था. स्कूल एक अजूबी दुनिया उनके सामने रखने लगा. इसलिए स्कूल में दाखिला लेने, टिके रहने, पढ़ने में बच्चों का दिल ही न धंसता था. उसमें वे मिसफिट होते थे. साथ ही,  उन्हें अपने स्वाभाविक परिवेश और जीवन की प्रक्रियाओं के साथ सिलसिले की जगह एक टूटन भी दिखने लगी. आज आदिवासी जन अनेक समस्याओं से जूझ रहे हैं. सभ्यता के साथ-साथ पहुंचे बाजार ने आदिवासियों की जरूरतें बढ़ाई और उनके स्वावलंबी जीवन में सेंध लगाई. उन्हें कर्जदार बनाया. सूद पर रुपये दे साहूकार उनका शोषण और दमन करने लगे. जबरन धर्मातरण, सरकारी अमले द्वारा भ्रष्टाचार, यौन-शोषण और शारीरिक यातना जैसी घटनाएं आम होती जा रही हैं. ठेकेदारों द्वारा पेड़ों की अबैध कटाई, वन्य जीवों का शिकार, औषधीय वृक्षों की कटाई, महिलाओं का शोषण और न्यूनतम मजदूरी भी न मिल पाना कुछ ऐसी समस्याएं हैं, जो सभ्य समाज के साथ आदिवासियों के रिश्तों को प्रश्नांकित करती हैं. आवश्यक है कि आदिवासियों का विकास उनके ढंग से हो. उनके विकास की राह उनके ज्ञान और अनुभव पर आधृत हो, उनके लिए उपयुक्त और सरल तकनालजी हो.

वनों को गैर कानूनी लकड़ी व्यापारियों से बचाना भी बेहद जरूरी है, और जहां वनों में वृक्ष नष्ट हो रहे हैं, वहां फलदार वृक्ष लगाए जाएं. जल, जंगल और जमीन में ही आदिवासी जनों की जान बसती है, उनकी रक्षा जरूरी है. इनका प्रबंधन उन्हें ही करने का अवसर मिलना चाहिए. नृत्य-गान, पर्व-उत्सव आदि के साथ विविध कलाओं और स्वास्थ्य विषयक पारंपरिक ज्ञान का समृद्ध संसार उनके पास है, जिसमें आधुनिक होते लोगों के लिए भी बहुत कुछ सीखने लायक है पर जो रक्षा के समुचित प्रयास के अभाव में ओझल होता जा रहा है, उसे संग्रहालय की वस्तु न बना कर जीवन के लिए गुनने-गहने लायक बनाना होगा.

गिरीश्वर मिश्र


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