नजरिया : देखते हैं फाइनल रिजल्ट

Last Updated 05 Nov 2017 12:57:39 AM IST

आठ नवम्बर 2016 रात के 8 बजे जब ‘मेरे प्यारे देशवासियों’ के संबोधन के साथ नोटबंदी का ऐलान हुआ तो दुनिया चकित रह गई.


नजरिया : देखते हैं फाइनल रिजल्ट

यह सदी का सबसे बड़ा एलान था. भ्रष्टाचार और कालाधन पर चोट, आतंकी नेटवर्क को तबाह करने और देश के गरीबों के लिए उन्नति का द्वार खोलने का मकसद लेकर पीएम नरेन्द्र मोदी सामने आए थे. 50 दिन में हालात सामान्य होने का दावा किया गया था. ऐलान के एक साल पूरे होने को है. इस दौरान उपलब्धियां हैं तो चिंता के प्रमाण भी. ऐसे में सवाल ये है कि नोटबंदी क्या देश के लिए वरदान रही या फिर यह अभिशाप साबित हुई है? देश मोदी की राह पर चलते हुए जश्न मनाए या विपक्ष की राह पर चलते हुए मातम?
जर्मन अर्थशास्त्री नॉर्बटर हेरिंग ने यह दावा करते हुए कि भारत में नोटबंदी अमेरिका के इशारे पर हुई है, राजनीतिक भूचाल ला दिया है. जीरोहेज डॉट कॉम, जॉर्ज वॉशिंगटन के ब्लॉग में लिखते हैं,‘भारतीयों पर यह हमला होने से चार हफ्ते पहले यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी ऑफ इंटरनेशनल डवलेपमेंट (यूएसएआईडी) ने ‘कैटिलस्ट: कैशलेस पेमेंट पार्टनरशिप’ की स्थापना किए जाने का ऐलान किया था.’ गौरतलब है कि विपक्ष पहले से ही यह कहता रहा है कि नोटबंदी का फैसला वित्त मंत्री अरु ण जेटली और रिजर्व बैंक का फैसला नहीं था. यह मोदी सरकार का फैसला था. यहां तक कि रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के इस्तीफे को भी नोटबंदी से ही जोड़कर देखा गया था. ऐसे में जर्मन पत्रकार के दावे ने मोदी सरकार पर हमला करने का विपक्ष को नए सिरे से मौका दे दिया है.

‘ईज ऑफ बिजनेस डुइंग’ के पैमाने पर विश्व बैंक ने भारत को दुनिया में सबसे ऊंची छलांग लगाने वाले देश के रूप में पहचाना है. भारत अब 100वें नम्बर पर है, जिसे नोटबंदी का सुफल माना जा रहा है. मगर, र्वल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2017 कहती है कि भारत के लोग और दुखी हुए हैं. भारत की स्थिति पहले से खराब हुई है और अब यह एशियाई देशों में सबसे पीछे, यहां तक कि पाकिस्तान से भी पीछे है. पहली उपलब्धि पर मोदी सरकार इतरा रही है तो दूसरा तथ्य नोटबंदी की नाकामयाबी दिखा रहा है, जिस पर विपक्ष तंज कस रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर घोषणा तो की थी कि पिछले ढाई साल में देश में सवा लाख करोड़ रु पये कालाधन का पता लगाया गया है, मगर नोटबंदी के कारण और नोटबंदी के बाद कितना कालाधन सामने आया है; इस पर उनकी चुप्पी बनी हुई है. वहीं रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की वार्षिक रिपोर्ट और पुराने नोटों के वापस लौटने के आंकड़े को सामने रखते हुए मोदी सरकार से पूछा जा रहा है कि जब 99 फीसद पुराने नोट वापस आ गए, तो इनमें से कालाधन कितना था? कालाधन भी कैसे सफेद हो गया?
नोटबंदी के बाद की तिमाही में जीडीपी में भारी गिरावट ने भी नोटबंदी के फैसले पर सवाल उठाए हैं. वार्षिक विकास दर 7.1 फीसद तक पहुंच गई. चीन से स्पर्धा कर रहा भारत आर्थिक विकास दर में उससे पिछड़ गया. जिस तरह के संकेत हैं. उनसे अंदाजा लगाया जा रहा है कि नोटबंदी के परिणामस्वरूप 2 फीसद जीडीपी में गिरावट की भविष्यवाणी जो मनमोहन सिंह ने की थी, वह सही साबित होने जा रही है. आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने नोटबंदी से जीडीपी को करीब 1.5 फीसद नुकसान होने का दावा किया है जिसका मतलब है कि देश को 2 लाख करोड़ रु पये का नुकसान हुआ है. इतना ही नहीं, माना जा रहा है कि जीएसटी के लागू होने के बाद कारोबार को धक्का लगा है जिसका असर भी अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है और यह आने वाली तिमाही में जीडीपी की दर में गिरावट के रूप में दिखेगा.
नोटबंदी से आतंकवाद और नक्सलवाद की कमर टूट जाने का दावा किया गया. वातावरण यह जरूर कहता है कि इसमें कमी आई है. पत्थरबाजी रु की है, हुर्रियत नेता मनी लॉउड्रिंग केसों में नजरबंद हैं या फिर हिरासत में हैं. नक्सलवादी गतिविधियां थमी हुई हैं. फिर भी इन घटनाओं पर काबू पा लेने का दावा सही साबित नहीं हुआ है. नकली नोटों पर लगाम लगने के दावे को खुद तथ्य झुठला रहे हैं. 2016-17 में जो जाली नोट पकड़े गए हैं, वह पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2015-16 के मुकाबले महज 20.4 फीसद ज्यादा हैं. अगर वाकई नोटबंदी के कारण नकली नोटों पर लगाम लगी होती, तो नकली नोट ज्यादा पकड़ में आए होते.
रोजगार के मामले पर मोदी सरकार बुरी तरह से सवालों के घेरे में है. रोजगार के मौके बढ़ना तो दूर इसमें कमी ही आई है. केंद्र सरकार ये आंकड़ा नहीं रख पा रही है कि नोटबंदी के बाद से कितने लोगों को रोजगार मिले हैं. इसके बजाए सरकार कह रही है कि उसने नौजवानों को ऋण उपलब्ध कराकर अपने पैरों पर खड़े होने का मौका दिया है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब देश में कारोबारी माहौल ठप है, जीडीपी गिर रहा है तो ऋण का इस्तेमाल नौजवान कैसे कर पाए होंगे? निश्चित रूप से यह ऋण भी खुद नौजवानों और सरकार पर भारी बोझ साबित होने वाला है. यानी मामला उल्टा पड़ने जा रहा है.
बीजेपी से जुड़े मजदूर संगठन बीएमएस के अध्यक्ष साजी नारायणन ने माना है कि 25 फीसद आर्थिक गतिविधियां नोटबंदी की वजह से बुरी तरह प्रभावित हुई हैं. यह छोटी बात नहीं है. जब आर्थिक जगत का चौथाई हिस्सा प्रभावित होगा, तो देश की तरक्की कैसे हो सकती है? सबसे अहम बात ये है कि असंगठित सेक्टर की आर्थिक गतिविधियों को मापने का कोई पैमाना नहीं है जिसके बारे में बताया जा रहा है कि नोटबंदी से वह सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है. यही वजह है कि आर्थिक विशेषज्ञ मान रहे हैं कि आने वाले समय में जीडीपी में और भी अधिक गिरावट के आंकड़े आ सकते हैं.
लेकिन सरकार निराश नहीं है. सरकार दावा कर रही है कि नोटबंदी के बाद से 2 लाख से ज्यादा फर्जी कंपनियों को पकड़ा गया है. करदाताओं की संख्या में भी 55 लाख लोग जुड़े हैं. देश कैशलेस होने जा रहा है. नकदी का प्रचलन कम हुआ है. 8 फीसद कम नकदी से देश ने काम चलाना सीख लिया है. देश की बैंकिंग व्यवस्था में पारदर्शिता आई है. निश्चित तौर पर इससे सरकार को तय राजस्व में बढ़ोतरी होगी. मगर, आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि आमदनी का यह स्रोत अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान के सामने नगण्य है.
यह सच है कि नोटबंदी को लेकर जो दावे किए गए थे, जो उम्मीदें बंधाई गई थीं, वह पूरी नहीं हुई है. नोटबंदी के अच्छे परिणाम के साथ-साथ बुरे परिणाम भी जनता को झेलने पड़े हैं-यह बड़ी सच्चाई है. ऐसे में सरकार के दावे और आर्थिक विशेषज्ञों और विरोधी दलों के दावों की परख करते हुए इतना जरूर कहा जा सकता है कि नोटबंदी वरदान के तौर पर अब तक अपना ठोस असर नहीं दिखा पाई है. मगर, अब भी इसके अंतिम परिणाम का इंतजार करने की जरूरत है. तभी पुख्ता तौर पर कहा जा सकेगा कि यह वरदान साबित हुई है कि अभिशाप?

उपेन्द्र राय
‘तहलका’ के सीईओ एवं एडिटर-इन-चीफ


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