जिलाई बाई : ‘पधारो म्हारे देश’ की मूल तान

Last Updated 03 Nov 2017 05:05:14 AM IST

मधुर और श्रृंगारिक राग है मांड. आरोह-अवरोह में वक्र सम्पूर्ण राग. संगीत की विष्णु नारायण भातखंडे की परम्परा की मानें तो मांड राग बिलावल थाट में आता है.


जिलाई बाई : ‘पधारो म्हारे देश’ की मूल तान

परन्तु सुनते हैं तो मांड का लोक संगीत मिश्र राग में ध्वनित होता लगेगा. स्व. अल्लाह जिलाई बाई का ‘पधारो म्हारे देस..’ तो मांड का पर्याय ही हो गया है. उनके स्वर माधुर्य में जितनी बार सुनेंगे, मन करेगा सुनें. और सुनें. बार-बार सुनें. सुनते ही रहें.

अल्लाह जिलाई बाई ने वर्षो तक लोक संगीत की भारतीय पंरपरा को न केवल संजोकर रखा बल्कि राजस्थानी लोकसंगीत को भी एक नया आयाम दिया. उन्हें संगीत विरासत में मिला. पांच वर्ष की अल्पायु में ही अल्लाह जिलाई अपनी मां के साथ बीकानेर रियासत के महाराजा गंगा सिंह के दरबार में गायन के लिए जाने लगीं. जब उनकी मां दरबार में गातीं तो वह खूब ध्यान से मां के गाए गीत सुनती. इन्हें फिर वह गुनगुनाती भी. ऐसे ही उनकी गुनगुनाहट को एक दिन उस्ताद हुसैन खां ने सुन लिया. फिर क्या था हुसैन साहब ने उन्हें अपनी शिष्या बना लिया.

हुसैन खां से 8 वर्ष की उम्र से ही विधिवत संगीत की तालिम लेते अल्लाह जिलाई ने अल्प अवधि के दौरान ही गायन की बारीकियों को ग्रहण कर लिया. हुसैन साहब की जल्द ही मृत्यु हो गई. मगर उनसे जो अल्लाह जिलाई ने सीखा उसे ताउम्र अपने तई संजोकर रखा. संगीत तालीम के अंतर्गत बाद में बीकानेर राजघराने की ओर से राजघराने के प्रतिष्ठित गुणीजन खाना (संगीत तालीम का केंद्र) में उन्हें भर्ती करवा दिया गया. गुणीजन खाने के अंतर्गत बिरजू महाराज के पिता अच्छन महाराज से अल्लाह जिलाई ने कत्थक की शिक्षा भी प्राप्त की. लच्छू महाराज, अमीर खां, शमशुद्दीन आदि का भी उन्हें इस दौरान निरंतर सानिध्य प्राप्त हुआ. जिस अंदाज से वह गाती उसमें आरोह-अवरोह का अंदाज वह शायद अपने भीतर की नृत्यांगना से लेती थी.

यही कारण था कि उनकी खनकदार आवाज के साथ स्वत: ही ताल शुरू हो जाता था. ठुमरी दादरा, ख्याल और पारंपरिक राजस्थानी गायन में अल्लाह जिलाई बाई जैसे लोक का उजास रचती थीं. शास्त्रीय आधार पर गांठ, चैताला, उडी, झूमरा आदि कठिन तालों में भी वह गातीं तो जैसे स्वरों का आकाश बनता. राजस्थानी प्रेमाख्यान, महेंद्र मूमल, रतन राणा सांवरिया की पाल, ढोला मारू आदि माड गीतों में अल्लाह जिलाई बाई ने अपने सधे स्वर का जो जादू बिखेरा वह आज भी दिल में घर करता है. गायकी में फिरत और घुमावदार तानों भरी गूंजती-खनकती आवाज की अल्लाह जिलाई बाई अद्भुत संगीत साधिका थीं. राजस्थानी लोक संगीत की विभिन्न परंपराओं को अपने कंठों में समेटे जिलाई बाई ने दादरा, ठुमरी, कजरी, व होली के गीतों को भी जैसे जिया. राग देस, सारंग, आशा खमाज, जयजयवंती, सोरठ, झिंझोटी और अन्य विविध रागों को कुशलता से अपने सुरों में साधते उन्होंने जो भी गाया, उसे मन से जिया.

‘केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारा देस.’, ‘बाई सा रा बीरा म्हाने पिहरिये ले चालो सा..’, आदि माड गीतों की उनकी खनकती आवाज आज भी फिजा में जैसे रस घोलती है. जिलाई बाई ने न केवल राजस्थानी लोकसंगीत को ख्याति दिलाई बल्कि लोक गायन परंपरा को भी शास्त्रीय गायन की ही तरह उच्च स्थान दिलाया. वर्ष 1987 में लंदन में ‘र्वल्ड कोर्ट सिंगर कांफ्रेंस’ में भारत का प्रतिनिधित्व करते अल्लाह जिलाई बाई ने दुनिया भर के इकट्ठा हुए संगीतकारों में यह साबित किया कि राजस्थान का लोक संगीत मिट्टी की सोंधी महक लिए ऐसा है, जिसे कभी बिसराया नहीं जा सकता. याद पड़ता है, लोकगीतों की माड गायन परंपरा के संबंध में अल्लाह जिलाई बाई से इस लेखक ने एक मुलाकात में पूछा था तो उन्होंने कहा था, ‘माड दूहों की ही अलंकृति है.’

अल्लाह जिलाई बाई ‘पधारो म्हारे देस’ गाती तो पावणों की मेजबानी की राजस्थानी संस्कृति के दृश्य चितराम भी अनायास आंखों के सामने घूमने लगते हैं. उनके गाए ‘सुपनो,’ ‘हेलो, ‘जल्ला’, ‘ओयू’, ‘कलाली’, ‘कुरंजा’ गीतों को सुनेंगे तो राजस्थान की संस्कृति के अनूठे चितराम, परम्पराएं भी आंखों के सामने जैसे तैरने लगेंगी. बीकानेर टाऊन हाल में अपने अंतिम कार्यक्रम में अल्लाह जिलाई बाई ने ‘केसरिया बालम’, ‘गोरबंध’, ‘मूमल’, और ‘दिले नादां तुझे हुआ क्या है’ जैसे गीत-गजल प्रस्तुत करतीं अपनी बेहतरीन गायकी का ढलती उम्र में भी अहसास दिलाया था. 90 वर्ष की आयु में 3 नवम्बर 1992, जिलाई बाई ने हम सबसे सदा के लिए विदा ले ली परंतु ‘पधारो म्हारे देस..’ के उनके सुर क्या कभी हमसे जुदा होंगे?

राजेश कुमार व्यास


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