दावा-प्रतिदावा : दल नहीं, देश के सरदार

Last Updated 03 Nov 2017 05:14:10 AM IST

सरदार वल्लभ भाई पटेल की 31 अक्टूबर को 142वीं जयंती थी. तमाम राजनीतिक पार्टियों खासकर भाजपा और कांग्रेस के बीच सरदार पटेल को अपना आदर्श करार देने के लिए जंग-सी छिड़ गई.


दावा-प्रतिदावा : दल नहीं, देश के सरदार

ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. बेशक, सरदार पटेल की विरासत संजोए रखने का प्रयास सराहनीय है. आधुनिक और एकजुट भारत के निर्माण में महती भूमिका निभाने वाले तमाम नेता अपार सम्मान के पात्र हैं. लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अपने राजनीतिक सिद्धांत के माकूल दिखने नेता को किसी दूसरे पर तरजीह दी जाए या किसी अन्य नेता की तुलना में नेता विशेष की उपलब्धियों का बढ़-चढ़कर बखान किया जाए. पहले भी ऐसा हुआ है, और अब भी ऐसा हो रहा है. हममें से अनेक को ऐसे प्रयास उचित नहीं लगते क्योंकि अनुचित को उचित नहीं ठहराया जा सकता. 

सरदार पटेल का देश के निर्माण में महती योगदान है, और इसलिए सरकार, समूहों या व्यक्तियों द्वारा उनका स्मरण लाजिम है.  उनका व्यक्तित्व बहुमुखी था. वह मजबूत इच्छा शक्ति के पुंज थे. त्वरित फैसले लेते थे. दोटूक अपनी बात रखते थे. ठोस कार्रवाई करने के लिए जाने जाते थे. एकता में विविधता की भावना के हामी थे. उनमें देशभक्ति का उदात्त भाव था. अफसोस! इन गुणों का वर्तमान नेतृत्व में नितांत अभाव है.

कांग्रेस ने अपने शासनकाल के दौरान अनेक नीतियों को सरदार पटेल के नाम से क्रियान्वित किया. अनेक स्मारकों, स्थलों, सड़कों, संस्थानों के नाम उनके नाम पर रखे. लेकिन नेहरू वंश के  नेताओं की तुलना में उनका नाम कम दिखा. इस कमी को भाजपा अपने रणनीतिक फायदे के लिए भुनाने में सक्रिय हो गई. सरदार पटेल अब भाजपा के स्वाभाविक सहयोगी हो गए हैं. 2014 में उनकी जयंती 31 अक्टूबर को प्रति वर्ष ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की गई.
सरदार पटेल की विश्व की सर्वाधिक ऊंची प्रतिमा भी इन दिनों खासी चर्चा में है. ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ इसका नाम रखा गया है.

इसकी स्थापना पर दो हजार करोड़ रुपये की लागत आई है. रोचक यह कि ओएनजीसी, एचपीसीएल, आईओसीएल और इंडियन ऑयल जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने अपने नैगमिक सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत प्रतिमा के निर्माण में सैकड़ों करोड़ रुपये का सहयोग दिया है. दरअसल, पैसे की फिजूलखर्ची को पूर्व में भी वैसा हो चुकने की बात कहकर तार्किक ठहराया जाता है. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के मंत्रालयों ने 31 अक्टूबर, 2017 को ‘सरदार वल्लभ भाई पटेल को राष्ट्र शत् शत् नमन करता है’ कार्यक्रम को खास तवज्जो दी. समूचे भारत में ‘एकता दौड़’ के साथ निबंध प्रतियोगिताओं समेत अनेक सांस्कृतिक, साहित्यिक और खेल कार्यक्रम आयोजित किए गए.

इन सबके बावजूद सरदार पटेल के व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति भाजपा का अभूतपूर्व झुकाव स्नेह-सम्मान से कहीं ज्यादा राजनीतिक फायदे के लिए है. 2014 के शुरुआती दिनों में चुनावी अभियानों के दौरान इन सब कवायदों के ज्यादा से ज्यादा होने से इस बात की झलक मिलती है. नरेन्द्र मोदी के गुजरात में मुख्यमंत्री के रूप में डेढ़ दशक के कार्यकाल में तो सरदार पटेल को इस तरह से सम्मान शायद ही मिला हो. सरदार पटेल के सख्त नजरिए और तौर-तरीकों से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन भारत की एकता को सहेजने में उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता. पांच सौ से ज्यादा रियासतों को एक झंडे तले ले आना उनकी इस प्रतिबद्धता से ही संभव हो सका था.

इस दुष्कर कार्य को बड़ी उपलब्धि में तब्दील करने के बावजूद न तो उनने आत्ममुग्ध राजनीति को पास भटकने दिया और न ही लोक-लुभावन और सैद्धांतिक कार्रवाइयों से जुड़ना गंवारा किया. हालांकि वह कांग्रेस संगठन में 1930 से 1950 में अपनी मृत्यु तक दबदबे वाली हैसियत में रहे. लेकिन उन्होंने निजी हित को कभी तरजीह नहीं दी. न ही पार्टी में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को  किनारे करने की कोशिश की. 1950 में पटेल की मृत्यु कांग्रेस के लिए बड़ी क्षति थी. लेकिन उनके जैसे बेजोड़ नेतृत्व वाले नेता की अनुपस्थिति कांग्रेस के फायदे में रही. तभी से कांग्रेस वंशानुगत राजनीति और महत्त्वाकांक्षा को तरजीह देने वाले नेताओं के पार्टी में बढ़ते दबदबे की गिरफ्त में आती चली गई.

सरदार पटेल के जीवनीकार नरहरि पारिख के मुताबिक, पटेल ने जिसे सच समझा उसी के पक्ष में हमेशा लड़े. उन्होंने पार्टीगत पदक्रम का पूरा सम्मान करते हुए अपनी नाराजगी जताने के लिए हमेशा प्रक्रियात्मक मार्ग को अपनाया. इसी के साथ उन्होंने तमाम असंतोष और मत-भिन्नता के प्रति भी पूरा सम्मान दिखाया. विडम्बना ही है कि भाजपा एकाएक सरदार पटेल की कट्टर प्रशंसक के रूप में उभर आई है, जबकि पटेल के नेतृत्व गुण, देशभक्ति को लेकर उनके विचार और धर्मनिरपेक्षतावादी तकाजों से केसरिया पार्टी का कुछ लेना-देना नहीं है. पटेल के नेतृत्व का मर्म तो उनके न्यायप्रिय व्यवहार में निहित है, जिसके बल पर उन्होंने सभी के साथ समान व्यवहार किया. सरदार पटेल मजबूत और एकजुट भारत के हामी थे, लेकिन उनका राष्ट्रवाद कट्टरता कहें कि हिंदू राष्ट्रवाद की चपेट से बाहर था. वह भीतर तक धर्मनिरपेक्ष थे, लेकिन नेहरू और गांधी की तुलना में थोड़ा  भिन्न थी.

देश में हमेशा से ध्रुवीकृत चश्मे के जरिए सांप्रदायिक माहौल को देखने के प्रयास हुए हैं. पटेल के सपनों का सांप्रदायिक सौहार्द अभी तक नहीं आ सका है. आज उन्हें ऐसे महिमामंडित किया जा रहा है, जैसे कि वे मुस्लिम-विरोधी थे. यह साबित करने के लिए उनके भाषणों के चुनिंदा और संदर्भरहित अंश पेश किए जा रहे हैं. बहरहाल, भले ही पटेल का स्वर और लहजा कड़ा था, कभी-कभी संशयपूर्ण भी लेकिन दावे से कहा जा सकता है कि वह अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच सौहार्द बने रहने के कट्टर हामी थे.

अफरोज आलम


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