न हो कहीं 'मैरी गो राउंड'

Last Updated 30 Oct 2017 05:46:00 AM IST

ग्लूकोज की आवश्यकता दो तरह के लोगों को हो सकती है; एक तो वो जो अशक्त हों और दूसरे वो जो मैराथन दौड़ रहे हों.


बैंकों का विलयीकरण

यही बात बैंकों को दी जा रही कैपिटल के संदर्भ में उपयुक्त है. बस ये तय करना है कौन बैंक किस श्रेणी में है? अच्छे बैंक के लिए दी जाने वाली कैपिटल 'ग्रोथ कैपिटल' और अन्य को सिर्फ  जीवित रखने के लिए दी जाने वाली 'लाइफलाइन कैपिटल' वो भी तब तक जब तक कि उसके अस्तित्व का विलय न हो जाए. मगर बैंकिंग क्षेत्र में स्वायतत्ता और पारदर्शिता को लाए बिना उनको पूंजी देने में जोखिम हैं. अगर ये बैंक उसी तरह काम करेंगे तो इस कैपिटल का भी हश्र वही होगा जो होता आया है.

सरकारी क्षेत्र के बैंकों में कैपिटल के इंतजाम का स्वागत हुआ है. स्वागत तो नोटबंदी का भी लोगों ने खुले दिल से किया था मगर उसके परिणाम अपेक्षित नहीं आए. आज वो ही खतरा इस कदम में भी है. इस रकम की आधी से अधिक राशि बांड निर्गम के द्वारा जुटाई जाएगी और इस बात की संभावना है कि उस बांड निर्गम में बैंक अपनी जमा राशि को ही निवेशित करें  अभी इन बांड्स के बारे में स्पष्ट नहीं है कि उनकी क्या प्रकृति होगी और उनकी क्या ब्याज दर होगी. कुछ विशेषज्ञों की राय में इस कदम को काफी पहले उठाया जाना था मगर शायद उस समय इस बात की उम्मीद थी कि ऋणों की वसूली हो सकेगी मगर ऐसा हुआ नहीं और इसके उलट एनपीए की दर में तेजी से वृद्धि हुई और यह आंकड़ा इस समय आठ लाख पचास हजार करोड़ के आस पास है. हालांकि यह सारा पैसा अगले दो साल में ही आ पाएगा. उदाहरण के लिए अगर हम ये माने कि सब कुछ प्लान के मुताबिक हो यानी बांड्स भी आ जाएं, बैंक पूंजी बाजार से पैसा भी ले लें  और बजट से भी पैसा मिल जाए तो केवल इस पूंजी के बल पर ही बीस लाख करोड़ रु पया बांटा जा सकता है.

यह जोखिम भी है और अवसर भी यह कहना अभी उचित नहीं होगा कि यह समस्या का निदान है. यह तो केवल एक विास का द्योतक है, जो सरकार ने सरकारी बैंकों में जताया है. लेकिन हुजूर ऐसा क्या बदल गया इन सरकारी बैंकों में? उल्टे नोटबंदी के दौरान भ्रष्टाचार और घपले का खून कई मुंह को लग चुका है. एक बार शेर आदमखोर हो जाए तो बस फिर क्या कहिए? इसलिए सरकार को अब बैंकों के प्रबंधकीय आयाम भी सुधारने होंगे अन्यथा हम इसी दोराहे पर आ लेंगे जहां आज खड़े हैं. 

बैंकों की ऋण देने की क्षमता एवं गुणवत्ता में सुधार आवश्यक है, जिसके लिए कौन से कदम उठाने को सरकार तैयार है अभी स्पष्ट नहीं है. दूसरी तरफ यह कहना कि उधारी का कोई प्रभाव वित्तीय घाटे पर नहीं होगा. ऐसा शायद तभी संभव होगा जब भविष्य में बैंकों को अधिक डिविडेंड के लिए दबाव डाला जाए. कहीं ऐसा न हो वर्तमान सरकार सिर्फ  स्वच्छता और सफाई करे और कुछ वर्षो बाद फिर दोबारा हलवा-पूरी बंटे  ऋणों में राजनैतिक दवाब इस समस्या के मूल में है उसकी गारंटी कौन लेगा  यदि ऐसा हुआ हुआ तो ये सारा पैसा 'मैरी गो राउंड' की तरह वापस उन्हीं जेबों में चला जाएगा जहां पहले गया था.



सरकारी बैंकों को सरकार 'बुक वैल्यू' से कम पर पूंजी जुटाने की अनुमति नहीं देती. अपनी बुक वैल्यू से आधे से भी कम पर ट्रेड करने वाले शेयरों में अचानक आयी तेजी इन शेयरों को 'प्राइस टू बुक वैल्यू' एक के बराबर लाने का प्रयास है. यह एक बड़ा निर्णय है. मगर तेज धक्के के साथ इकोनॉमी को मजबूत करने का प्रयास बहुत जोखिम भरा है. जरूर ही कहीं न कहीं नोटबंदी के दौरान जमा हुए काले धन से संबंधित डाटा को खंगालने के प्रयासों में सफलता हाथ लगी है और यह आत्मविास उसी के कारण है. हालांकि तमाम जोखिमों के बावजूद भारत के संदर्भ में लगभग सभी बैंकों ने पूंजी पर्याप्तता को बनाए रखा है किंतु 'इन्सोल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड' के चलते विभिन्न कॉर्पोरेट सोलुशंस में लिए जाने वाले नुक्सान को, जिसे 'हेयर कट' भी कहा जाता है, पूरा करने के लिए बैंकों के पास पूंजी नहीं थी और वो बहुत जल्दी और समयबद्ध तरीके से होने वाला समाधान है; भले ही उस कोड की अवधारणा रिकवरी के लिए न हो मगर बैंकों के लिए वो सबसे बेहतरीन रास्ता है.

अब देखना यह है कि हेयर कट में होने वाले घपले से कैसे निपटा जाएगा? जुम्मा जुम्मा चार दिन में इस कानून में भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे हैं जांच एजेंसियों को काफी सतर्क होना होगा. 'इन्सोल्वेंसी रेसोलुशन प्रोफेशनल' नई प्रजाति है, जो कानून की कमियों का लाभ उठा सकती है. कुछ एक शिकायत इस संदर्भ में 'बोर्ड' को की जा चुकी हैं. वैश्विक पटल पर इसी तरह का सफल पूंजी निवेश चीन के द्वारा 1998  में किया गया था, जो काफी सफल रहा था. उस पैसे को चीन के चार बड़े बैंकों में डाला गया था. इस निर्णय के पीछे 'बासेल' के नियमानुसार टियर वन पूंजी में अपेक्षित निवेश भी आ जाएगा जो कि एक एकाउंटिंग एंट्री ही है. मगर वो जोखिम पूंजी के रूप में सरकार द्वारा निवेशित होगा भले ही वो जनता की जमा राशि ही क्यों न हो.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह एक साहसिक निर्णय है मगर बिना बैंकों के विलयीकरण के ठोस प्रस्तावों के यह कुछ-कुछ बग्घी को घोड़ों के आगे रखने जैसा है. लगता है चुनाव के मद्देनजर बैंक विलयीकरण संबंध में घोषणा को रोका गया है. दूसरी तरफ 'भारतमाला परियोजना' के लिए यह सही समय है. सरकार ने सोचा होगा इस समय कम ब्याज दरों पर बांड्स के द्वारा फिक्स्ड कूपन रेट पर पैसा जुटाया जाए. आम जनता बैंक से अधिक रेट के लालच में लंबे समयावधि के लिए निवेश कर देंगे और इस तरह सड़कों के लिए भी पूंजी भी जुटा ली जाएगी. अगले साल ब्याज दरों के बढ़ने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता जबकि इस वर्ष ब्याज दरों के घटने की भी सम्भावना है. उम्मीद की जानी चाहिए की अगली नीतिगत घोषणा में ब्याज दरों में कटौती हो और उसके बाद गडकरी साहब भी बांड इश्यू ले कर आएं.

 

 

अनिल उपाध्याय


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