बिहार शिक्षा : दिलानी होगी दुर्दशा से निजात

Last Updated 24 Oct 2017 05:52:50 AM IST

बीते माह 13 सितम्बर को बिहार सरकार ने पटना में आईटी और आईटीई क्षेत्र के लिए निवेशकों की एक बैठक का आयोजन किया.




बिहार शिक्षा : दिलानी होगी दुर्दशा से निजात

उद्देश्य था कि आईटी, आईटीई और इलेक्ट्रॉनिक्स सिस्टम डिजाइन और निर्माण (ईएसडीएम) क्षेत्रों में बड़े स्तर निवेश आकषिर्त करने की गरज से निवेशकोन्मुख माहौल बनाने के लिए राज्य सरकार के स्तर पर की जा रहीं पहल और विकासात्मक प्रयासों की बाबत बताया जा सके. गौरतलब है कि बीते बारह वर्ष के दौरान नीतीश सरकार ने निवेश आकषिर्त करने के लिए ऐसी अनेक बैठकें आयोजित की हैं. लेकिन सरकार को अपने प्रयासों में ज्यादा सफलता नहीं मिल पा रही. इसलिए कि बिहार में  शिक्षा प्रणाली की दशा कोई बेहतर नहीं है. विकास के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को संस्थानों का संबल नहीं मिल पा रहा.  ऐसे में शैक्षणिक सुधारों में निवेश करके संस्थानों की विफलता से पार पाया जा सकता है.
आज बिहार शैक्षणिक दुर्दशा के दुष्चक्र में फंसा है. 2017 के शैक्षणिक वर्ष में बारहवीं के साठ प्रतिशत से ज्यादा छात्र अनुत्तीर्ण घोषित किए गए. इन परिणामों से राज्य की शैक्षणिक प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार का पता चलता है. अपर्याप्त स्कूली ढांचा, एकल शिक्षक स्कूलों की मौजूदगी, बड़े पैमाने पर शिक्षकों का स्कूलों से अनुपस्थित रहना, बड़े पैमाने पर शिक्षकों के रिक्त स्थान, लाइब्रेरी और प्रयोगशालाओं की कमी, फर्जी पंजीकरण और स्कूलों से गायब रहने की बड़ी संख्या जैसी अनेक प्रणालीगत समस्याओं का सामना राज्य को करना पड़ रहा है. इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र ने 2004 में शिक्षा के जो दो मानक परिभाषित किए थे, उनसे तो बिहार कोसों दूर है.

दो मानक हैं-शिक्षण से अर्जन का ज्ञान और खेल समिति, नाटक समिति, संसदीय समिति, वाद-विवाद समिति, भ्रमण समिति आदि जैसे मंचों के साथ ही शिक्षणोत्तर गतिविधियों के जरिए जीवन जीने के तौर-तरीकों की पहचान. इन पैमानों के बरक्स और शिक्षा का कानून, 2009 में उल्लिखित निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षण के मौलिक अधिकार के मद्देनजर बिहार कहीं दूर जा छिटका है. शिक्षा का कानून के बनाए जाने के नौ वर्ष पश्चात प्रथम ने शिक्षा की स्थिति पर ग्याहरवीं वाषिर्क रिपोर्ट प्रस्तुत की है. इससे पता चलता है कि राज्य सरकार के मंसूबे और प्रदर्शन के बीच बड़ी खाई है. राज्य सरकार ने माध्यमिक और उच्च शिक्षा के बजाय बुनियादी शिक्षा क्षेत्र को ज्यादा महत्व दिया है क्योंकि पहली पीढ़ी के विद्यार्थियों की संख्या बहुत ज्यादा है, और ये विद्यार्थी समाज के वंचित तबकों से आते हैं. लेकिन बुनियादी शिक्षा क्षेत्र की स्थिति ही खासी चिंताजनक है.

कक्षाओं में छात्रों की भीड़ भारत में सर्वाधिक है, तो शिक्षकों की संख्या सबसे कम. उस पर भारत का यह छठवां सर्वाधिक गरीब राज्य प्रति छात्र पैसा भी सबसे कम खर्चता है. प्राथमिक विद्यालयों में आवश्यकता से 38 प्रतिशत कम शिक्षक हैं, और मोटा-मोटी तीन लाख शिक्षकों का अभाव है. शिक्षा प्रणाली को लेकर विभ्रमित दृष्टिकोण के चलते राज्य की अपनी युवा आबादी को शिक्षित-प्रशिक्षित करने की तैयारी नहीं दिखती. जब हम बच्चों के समग्र एवं सर्वागीण विकास की दृष्टि से स्कूली ढांचागत सुविधाओं और उनकी विभिन्न समितियों का विश्लेषण करते हैं, तो पाते हैं कि शिक्षित-प्रशिक्षित शिक्षकों, खेल के मैदानों, प्रयोगशालाओं, लाइब्रेरी, बिजली, शौचालयों आदि के मामले में बिहार लकवाग्रस्त दिखाई देता है. माध्यमिक स्तर के स्कूलों में प्रति कक्षा में 97 छात्र पढ़ते हैं.

नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (एनयूईपीए) के एक हालिया सव्रेक्षण से पता चला है कि बिहार में सभी प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक दसवीं जमात तक पढ़े हैं. इतना ही नहीं इन स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं को घोर अभाव है. छात्रों को बेहतर जीवन जीने के तौर-तरीके सिखाने वाली समितियों और सभाओं की मौजूदगी की बाबत कोई जानकारी नहीं मिलती. समय आ गया है कि बिहार की शिक्षा प्रणाली में नये सिरे से जान फूंकी जाए. शिक्षा प्रणाली की दुर्दशा ने बिहार की छवि को बिगाड़ कर रख दिया है. जरूरी हो गया है कि बदलती स्थितियों के मद्देनजर अपनी भूलों और संसाधनों के अभाव का विश्लेषण करके राज्य का तेजी से विकास करे. केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा का कहना है कि निरक्षरता सामाजिक बुराई है. इसका खात्मा करना ही होगा. तभी गरीबी, कुपोषण, भूख, बीमारी, बेरोजगारी और बोझ बने संस्थानों से निजात मिल सकेगी.

डॉ. सुबोध कुमार
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक


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