कीटनाशक- आफत बनती जरा सी चूक
प्रकृति इंसान की जरूरत तो पूरी कर सकती है लेकिन लालच नहीं. कुछ यही हाल इस दौर में किसानों का है, जो इस बात से अनभिज्ञ अधिकतम फसल के लालच में अंधाधुंध खाद व कीटनाशकों का प्रयोग करते जा रहे हैं कि इसके चलते मानवता के वजूद पर खतरा मंडराने लगा है.
![]() कीटनाशक- आफत बनती जरा सी चूक (फाइल फोटो) |
ज्यों-ज्यों खतरनाक रसायनों का प्रयोग बढ़ रहा है, न केवल जमीन की उर्वराशक्ति घट रही है, बल्कि कीट-पतंगों की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती जा रही है. लेकिन दुनिया को सिर्फ बाजार समझने वाली कंपनियां जहरीले रसायनों की क्षमता भी बढ़ाती जा रही हैं. नतीजतन जरा-सी चूक पर अब किसान खुद मौके पर इसकी चपेट में आने लगे हैं.
महाराष्ट्र इसका ताजा सबूत है, जहां 50 से ज्यादा किसानों की मौत हो गई तो सैकड़ों उपचाराधीन हैं. कइयों की आंखों की रोशनी चली गई है. फिलहाल यह तो चेतावनी भर है, जबकि हालात इतने गंभीर हैं कि समूची खाद्य श्रृंखला ही इससे प्रभावित हो गई है. किसान टमाटर, बैगन, भिंडी, आलू, सेब, संतरे, चीकू, गेहूं, धान और अंगूर जैसी उपज पर रसायनों का छिड़काव करता है, तो इनके घातक तत्व फल-सब्जियों और उनके बीजों में प्रवेश कर जाते हैं. फिर इन रसायनों की यात्रा भूमि की मिट्टी, नदी के पानी और वातावरण की हवा में भी जारी रहती है.
इस प्रक्रिया में हम जो कुछ भी खाते-पीते हैं, उसके माध्यम से खतरनाक जहर सीधा हमारे शरीर में जा रहा है, जो मल-मूत्र और पसीने के माध्यम से भी बाहर नहीं निकलता, बल्कि शरीर की कोशिकाओं में फैल कर लाइलाज बीमारियों और भांति-भांति के कैंसर को जन्म देता है. कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार कोई व्यक्ति लगातार 5 साल तक अपने खाने में भिंडी या बैगन का इस्तेमाल करता है, तो निश्चित रूप से दमा का लाइलाज मरीज बन जाएगा और उसकी वास नलिका भी अवरुद्ध हो जाएगी. यही नहीं कीटनाशकों के चलते अन्य सब्जियों का सेवन भी जीवन के लिए घातक साबित हो रहा है. बावजूद इसके भारत में किसान बिना किसी रोक-टोक सहर्ष ऐसे रसायनों का प्रयोग कर रहे हैं जो दुनिया के कई अन्य देशों में प्रतिबंधित हैं. मसलन, डीडीटी, बीएचसी, एल्ड्रॉन, क्लोसडेन, एड्रीन, मिथाइल पैराथियान, टोक्साफेन, हेप्टाक्लोर सहित सैकड़ों दवाइयां हैं.
कीटनाशक प्रबंधन विधेयक, 2008 से ही संसद में विचाराधीन है. हालांकि हाल में सरकार ने पहल करते हुए इस प्रकार की 18 दवाइयों के विक्रय पर रोक लगा दी है. लेकिन यह अपर्याप्त है. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के फार्माकोलॉजी विभाग के एक अध्ययन से पता चलता है कि मच्छर, काकरोच आदि को मारने वाली दवाइयों का सर्वाधिक दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर पड़ता है, तो ग्रीनपीस इंडिया की एक रिपोर्ट बताती है कि कीटनाशक बच्चों के दिमाग को घुन की तरह खोखला कर रहा है. कीटनाशकों के चलते जैव विविधता को होने वाले नुकसान की भरपाई तो किसी भी तरह संभव नहीं है.
बता दें कि तमाम कीट-पतंगे पर्यावरण मित्र भी होते हैं, उनकी प्रजातियां इन खतरनाक रसायनों के चलते लुप्त होती जा रही हैं. हालांकि बढ़ती जनसंख्या को खाद्यान्न उपलब्ध कराना भी बड़ी चुनौती है. वहीं कर्ज के जाल में फंसा किसान जोखिम उठाकर कीटनाशकों के इस्तेमाल को कुछ हद तक मजबूर है. हमें प्राकृतिक उपायों की ओर ही लौटना होगा और जैविक खेती और जैविक कीटनाशकों को बढ़ावा देना होगा. जीवों एवं वनस्पतियों पर आधारित उत्पाद के कारण जैविक कीटनाशक माह भर में ही भूमि में अपघटित हो जाते हैं, और इनका कोई अंश अवशेष नहीं रहता. यहीं कारण है कि इन्हें पारिस्थितिकीय मित्र के रूप में जाना जाता है.
जैविक कीटनाशक केवल विषाक्त कीटों और बीमारियों को मारते हैं, जबकि कीटनाशक से हर तरह के कीट नष्ट हो जाते हैं. जैविक कीटनाशक विषहीन एवं हानिरहित होते हैं. पर्यावरण के साथ ही मनुष्य एवं पशुओं के लिए समान रूप से सुरक्षित हैं. इनके प्रयोग से जैविक खेती को बढ़ावा मिलता है, जो पर्यावरण व पारिस्थितिकीय संतुलन बनाने में सहायक है. यही नहीं हानिरहित तथा पारिस्थितिकीय मित्र होने के चलते पूरी दुनिया में इनके प्रयोग से उत्पादित चाय, कपास, फल, सब्जी, तंबाकू, खाद्यान्न, दलहन, तिलहन आदि की मांग एवं मूल्य में भी वृद्धि हो रही है. परिणामस्वरूप किसानों के उत्पादन की लागत भी बढ़ रही है.
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