परत-दर-परत : संघीय चरित्र को नष्ट करने का प्रस्ताव

Last Updated 15 Oct 2017 12:32:14 AM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चाहते हैं कि देश भर में लोक सभा और सभी राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं.


परत-दर-परत : संघीय चरित्र को नष्ट करने का प्रस्ताव

चुनाव आयोग ने भी घोषणा कर दी है कि वह अगले साल ऐसा कराने में सक्षम है. चुनाव आयोग ने अपनी ओर से यह घोषणा क्यों की, यह पता नहीं है. निश्चय ही सरकार की ओर से उसे यह पता लगाने के लिए नहीं कहा गया होगा. सरकार ने ऐसा कहा है, तो यह एक बेकार की कवायद है क्योंकि लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराया जाना सिर्फ  सरकार और आयोग के बीच का मामला नहीं है. स्वयं चुनाव आयोग ने ही स्पष्ट कर दिया है कि जब तक सभी राजनैतिक दल इसके लिए सहमत नहीं हो जाते, ऐसा नहीं किया जा सकता.

जहां तक विभिन्न राजनैतिक दलों के सहमत हो जाने का प्रश्न है, यह संभव दिखाई नहीं देता. केंद्र के साथ-साथ सभी राज्यों में भाजपा की सरकार होती तो शायद इसे संभव किया जा सकता था, हालांकि तब भी गंभीर संवैधानिक बाधाएं रहतीं. इस समय भाजपा बढ़त पर है. यह कब तक टिकेगी, पता नहीं. लेकिन यह मान पाना कठिन है कि कभी वह समय आएगा जबकि देश भर में भाजपा की ही सरकारें हैं. 2019 के लोक सभा चुनाव में मोदी की जीत सौ प्रतिशत पक्की है, यह दावा भी अब कोई नहीं करता. भाजपा के भीतर भी संदेह पैदा होने लगा है, क्योंकि मोदी से जनता का मोहभंग शुरू हो गया है. ऐसी स्थिति में लगता है कि मोदी का समानांतर चुनाव का सपना सपना ही बना रहेगा.

समानांतर चुनाव के पीछे एक ही तर्क हो सकता है कि इससे चुनाव पर होने वाला भारी-भरकम चुनाव खर्च बहुत कम हो जाएगा. लेकिन मैं नहीं समझता कि सिर्फ  चुनाव खर्च में बचत करने के लिए समानांतर चुनाव का विचार देश के सामने पेश किया गया है. इरादा यह होता तो चुनाव खर्च में कमी लाने के और उपाय भी हैं, जिन्हें आजमाया जा सकता है. फिलहाल स्थिति यह है कि चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा सिर्फ उम्मीदवारों के लिए है, राजनैतिक दलों के लिए नहीं. दल चाहे जितना पैसा चुनाव में झोंक सकते हैं. निश्चय ही यह लोकतंत्र विरोधी स्वतंत्रता है. राजनैतिक दलों पर भी अंकुश लगाया जा सकता है कि वे लोक सभा और विधान सभा की एक-एक सीट के लिए चुनाव प्रचार में एक सीमा से अधिक खर्च नहीं कर सकते. उनके खातों की ऑडिटिंग अनिवार्य कर देने से भी उनके अनाप-शनाप खर्च पर कुछ अंकुश लग सकता है.

अभी स्थिति यह है कि जिस दल के पास जितना ज्यादा पैसा है, वह चुनाव प्रचार में उतना ही ज्यादा खर्च कर सकता है. यह पूंजीवाद की चुनाव प्रणाली है, जिसमें बड़ी मछली छोटी मछली का फर्क बराबर बना रहता है. इससे विभिन्न राजनैतिक दल वैध या अवैध तरीकों से ज्यादा से ज्यादा पैसा बनाने के जुगाड़ में लगे रहते हैं, जिससे राजनीति निश्चित रूप से दूषित होती है. लेकिन लोकतंत्र का उद्देश्य इस विषमता को पाटना है, न कि और चौड़ा करना. इसका सब से अच्छा तरीका यही है कि चुनाव का सारा खर्च सरकार उठाए. फायदा यह होगा कि जो मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए जितना ज्यादा पैसा खर्च कर सकता है, उसके जीतने की संभावना उतनी ज्यादा होगी, यह विसंगति तो मिट ही जाएगी. जब मोदी प्रधानमंत्री बने थे, तब इसकी हलकी-फुलकी चर्चा शुरू भी हुई थी. लेकिन पता नहीं क्यों इस महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव को स्थगित कर दिया गया. इसलिए समानांतर चुनाव की कामना के पीछे कुछ और योजना होनी चाहिए. इस मामले में दो संभावनाएं दिखाई पड़ती हैं. एक यह कि सरकार भारत की संघीय प्रणाली को कमजोर कर देश का ढांचा एकात्मक शासन वाली बनाना चाहती है. लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव अलग-अलग होते हैं, इसलिए भारत का संघात्मक ढांचा अपने आप स्पष्ट हो जाता है. वस्तुत: भाजपाई दिमाग संघवाद-विकेंद्रीकरण में विश्वास नहीं करता. भारत को राज्यों का संघ (यूनियन ऑफ स्टेट्स, जैसा कि भारत के संविधान में बताया गया है) नहीं मानता. इसे सिर्फ  एक इकाई के रूप में देखता है, जिसमें केंद्र का राज्य देश भर में चले.

दूसरी संभावना राष्ट्रीय नायक की कल्पना से जुड़ी हुई है. वैसे तो कैबिनेट प्रणाली अब कहीं रही नहीं, जिसमें मंत्रालय स्वायत्त होते हैं, जहां-जहां भी संसदीय जनतंत्र है, प्रधानमंत्री एक तरह से राष्ट्रपति की तरह काम करता है. सब से ज्यादा शक्तिशाली होता है, और मंत्रिमंडल तथा पूरी सरकार उसके इशारों पर नाचते हैं. लेकिन देश भर में चुनाव एक साथ होंगे, तब प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार अगर बहुत मजबूत हुआ, तो वह सभी चुनावों को एक साथ प्रभावित कर सकता है. इसका नतीजा निकलेगा कि केंद्र में जिसकी सरकार बनेगी, अधिकांश राज्यों में भी उसी की सरकार बनेगी. कहने की जरूरत नहीं कि यह एकछत्र शासन को अप्रत्यक्ष निमंतण्रहै. इससे नायक पूजा की संस्कृति और मजबूत होगी, जो हमारे यहां पहले से ही कम नहीं है. सो, समानांतर चुनाव का विरोध लोकतांत्रिक राजनीति के हक में है. शुक्र है कि फिलहाल तो यह खामखयाली ही है. पर यह बुरा समय है. आज की कौन-सी खामखयाली कल यथार्थ होने के लिए व्याकुल होने लगे, कौन कह सकता है!

राजकिशोर


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