विस चुनाव : आसान नहीं गुजरात
हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनाव इसी माह होने वाले हैं और अगले मास गुजरात के. चुनाव अभियान आरम्भ करने से पहले ही प्रतिस्पर्धी पार्टियां भाजपा-कांग्रेस भिड़ गई हैं.
विस चुनाव : आसान नहीं गुजरात |
कांग्रेस का कहना है कि चुनाव आयोग ने भाजपा के दबाव में आकर तारीखें तय कर दीं वरन क्या आवश्यकता थी कि हिमाचल और गुजरात के मतदान एक साथ न हों जबकि दोनों विधान सभाओं का कार्यकाल लगभग एक साथ समाप्त होता है.
कांग्रेस को लगता है कि भाजपा को कुछ दिन की मोहल्लत इसलिए दी गई है कि वह आखिरी दिनों में लोक-लुभावनी योजनाओं की घोषणा कर डाले और मतदाता को अपनी ओर करने की कोशिश करे. आयोग की दलील है कि चुनाव संहिता की अवधि को लम्बा करने से जनहित के विकास के कार्यों में बाधाएं आती हैं, उसे कम करने के उद्देश्य से ही गुजरात में मतदान को कुछ समय बाद कराने का फैसला किया गया है. गुजरात के मुख्य सचिव ने चुनाव आयोग को पत्र लिख कर अनुरोध किया था कि मतदान की तिथि दिसम्बर में रखी जाए क्योंकि जल्दी रखने से बाढ़ पीड़ितों की सहायता में बाधा आएगी.
हिमाचल विधान सभा का कार्यकाल 7 जनवरी को समाप्त हो रहा है और गुजरात का 22 जन. को. आयोग ने हिमाचल विधान सभा के लिए मतदान की तिथि 9 नवम्बर को तय की है जबकि गुजरात के लिए कोई तिथि तय नहीं की गई. मुख्य चुनाव आयुक्त का कहना है कि तिथि 18 नवम्बर से पहले होगी क्योंकि इस दिन हिमाचल के नतीजे घोषित होंगे ताकि चुनाव नतीजों का असर गुजरात के मतदान पर न पड़े.
चुनाव का मौसम चुनावी रेवड़ियां बांटने का भी होता है, जिस कांग्रेस ने भाजपा पर चुनाव आगे बढ़ा कर चुनावी वायदे करने का आरोप लगाया है, उसी के शासन में हिमाचल प्रदेश में पिछले कुछ ही दिनों में हजार करोड़ रुपये की योजनाएं जारी कर दी गई हैं और गुजरात का हाल तो अहमदाबाद नगर निगम ने प्रस्तुत किया जबकि उसने कुछ ही मिनटों में पांच सौ करोड़ से भी अधिक रुपये की परियोजनाएं मंजूर कर दी. सोलह अक्टूबर को प्रधानमंत्री गुजरात जाने वाले हैं और देखना है कि वे गुजरातियों को क्या-क्या सौगात देते हैं.
हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है, मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह अपनी बढ़ी उम्र के अतिरिक्त अपने जीवन के अंतिम छोर में वे भ्रष्टआचरण के गंभीर आरोपों में फंस गए. अदालतों के चक्कर काटने और अपने आप को निदरेष साबित करने की कोशिश करते मुख्यमंत्री अब उतने लोकप्रिय नहीं दिखते, जितने थे. उन्हें 83 वर्ष की आयु में फिर से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने से उनकी अपनी पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता नाराज हैं और पार्टी भीतर से अलग-अलग शिविरों में बंटी दिखती है. प्रदेश पार्टी अध्यक्ष की नाराजगी किस हद तक कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगी, कहा नहीं जा सकता है. राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी यों तो युवा नेताओं को वरीयता देते रहे हैं, लेकिन हिमाचल में उनके पास भी कोई वैकल्पिक उम्मीदवार नहीं था. इसलिए वीरभद्र को ही उतारना मजबूरी थी.
लेकिन भाजपा भी कुछ ऐसी ही उलझन में है. पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को अब उनके पुराने प्रतिस्पर्धी वयोवृद्ध पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार तो चुनौती नहीं दे सकते. लेकिन हिमाचल की राजनीति में नए उभरे सितारे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा से उनकी उम्मीदवारी को चुनौती मिल सकती है. नड्डा न केवल केंद्र की राजनीति में इस समय मोदी और शाह की नजरों में सही व्यक्ति माने जाते हैं, अपितु तुलनात्मक रूप से कम उम्र के भी हैं.
लेकिन अगर चुनावों की तिथि की घोषणा तक भी दोनों में से किसी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं बनाया गया है तो साफ है कि केंद्रीय नेतृत्व अभी हिमाचल के मुख्यमंत्री पद के लिए अपना मन नहीं बना पाया है. दरअसल, भाजपा के पास जो महत्त्वपूर्ण साधन है, वह है प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता. इस नाम पर चुनाव जीतने के पश्चात पार्टी किसी ऐसे व्यक्ति को भी मुख्यमंत्री बना सकती है, जिसकी आम जनता को भी उम्मीद न हो. लेकिन सवाल है कि क्या मोदी अभी भी उतना ही सशक्त हैं.
देश में आर्थिक मंदी और नौकरी संबंधी कठिनाइयों के रहते अगर मोदी का करिश्मा जारी रहता है तो भाजपा मुख्यमंत्री-पद के उम्मीदवार के बिना भी चुनाव लड़ कर हिमाचल में जीत सकती है क्योंकि अगर उसे उसी अनुपात में मत प्रतिशत मिला जितने लोक सभा चुनावों में मिला था तो कांग्रेस अपनी गद्दी को शायद ही बचा पाए.
गुजरात इस बार उतना आसान नहीं है. इसका कारण राहुल गांधी नहीं हैं. उनकी सभाओं और उनके भाषणों ने मीडिया का कितना ही ध्यान खींचा हो, उसे चुनावी लोकप्रियता का मापदण्ड मानना भूल होगी. गुजरात में भाजपा की मुश्किल पटेल समुदाय के एक बड़े वर्ग की बगावत है. हार्दिक पटेल अपनी जाति के एक बड़े भाग को भाजपा से छीनने में कामयाब हो गए हैं.
इसलिए यह भाजपा के लिए बड़ा संकट तो नहीं है, लेकिन उसकी लोकप्रियता में गिरावट दर्ज होने का खतरा तो है. सवाल तो यही है कि क्या मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है तो कितना. गुजरात में मुसलमानों को मत प्रतिशत की दृष्टि से भाजपा के लिए नगण्य ही माना जाना चाहिए. महत्त्वपूर्ण है कि क्या पिछड़ा वर्ग उसी स्तर पर भाजपा के पक्ष में आएगा जैसे वह लोक सभा चुनाव के समय आया था. दोनों समुदायों के सत्तारूढ़ पार्टी के साथ रहने के अपने-अपने कारण हैं. आदिवासी कथित मुस्लिम विरोध के कारण पिछली बार कांग्रेस को छोड़ भाजपा में आए थे और फिलहाल कांग्रेस के पाले में जाने का उनके पास कोई कारण नहीं दिखता. पिछड़े वगरे को हार्दिक ने चौंका दिया है.
पटेलों के लिए अलग से नौकरियों में आरक्षण की मांग अगर स्वीकार होती है तो उससे सीधा नुकसान पिछड़े वगोर्ं को ही होगा. इसलिए भाजपा को कमजोर करना उनके पक्ष में नहीं है. कुल मिला कर गुजरात के जातीय समीकरण पहले की तुलना में काफी जटिल हो गए हैं. इससे चुनावी गणित भी गड़बड़ाया है. किसी प्रभावी मुख्यमंत्री के अभाव में यहां भी चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़ा जाएगा. गुजरात मोदी सरकार के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण चुनाव है क्योंकि अगर भाजपा को कोई बड़ा झटका लगा तो इसका प्रभाव आने वाले लोक सभा चुनाव पर भी पड़ सकता है.
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