परत-दर-परत : दशहरे पर रिश्तों की मर्यादा की याद
राम कथा का सब से कारुणिक पात्र कौन है? उसे जानते सभी हैं, पर उसकी चर्चा कोई नहीं करता. वास्तव में, भारतीय समाज ने उसे नफरत की दृष्टि से देखा है.
![]() दशहरे पर रिश्तों की मर्यादा की याद |
हम दशहरे पर रावण की मूर्ति जला कर हर्षित होते हैं, लेकिन साल भर यह बताना भी नहीं भूलते कि घर का भेदी लंका ढाहे. राम कथा का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि अगर ऐन समय पर विभीषण ने मदद नहीं की होती, तो राम के लिए रावण का वध लगभग असंभव था. लेकिन आम भारतवासी की निगाह में विभीषण ने अपने भाई से, अपने परिवार से द्रोह किया था और यह एक अक्षम्य आचरण है.
राम को आदर्श पुरु ष इसलिए माना जाता है कि उन्होंने राज्याभिषेक का त्याग और चौदह वर्ष के लिए वनवास स्वीकार कर अपने पिता के वचन की रक्षा की. पिता की मृत्यु हो जाने के बाद राम चाहते तो पिता के दोनों वचनों से मुक्त हो सकते थे. वचन दशरथ ने दिए थे जिनका प्राणांत हो चुका था. अत: उनके वचन भी उन्हीं के साथ तिरोहित हो चुके थे. लेकिन यह कोई और नहीं, राम थे. उन्होंने कानून और तर्क की शरण नहीं ली, ऋषि-मुनियों की परिषद बुला कर व्यवस्था नहीं मांगी कि मृत पिता के वचन उत्तराधिकारी पुत्र के लिए बाध्यकारी हैं या नहीं. पिता की भावना समझी और राजपाट त्याग कर वन जाने के लिए प्रस्तुत हो गए.
दशरथ-राम के संबंध को देखते हुए विभीषण की भूमिका पर पुनर्विचार किया जा सकता है. विभीषण को राजपाट से कोई मतलब नहीं था. वह सोने की लंका में कुटी बना कर धार्मिंक जीवन व्यतीत कर रहा था. लेकिन जब उसे पता चला कि रावण राम की पत्नी का अपहरण करके ले आया है, तो वह लंकेश को समझाने चला गया कि सीता को वापस कर दे. अंतिम समय तक विभीषण रावण को उसके कर्तव्य की याद दिलाता रहा पर रावण सत्ता के नशे में चूर था. हम विभीषण के अंतद्र्वद्व की कल्पना कर सकते हैं. एक तरफ राम थे, उसके आराध्य पुरु ष, मर्यादा पुरु षोत्तम, जिनके साथ अन्याय हुआ था, दूसरी ओर रावण था, उसका अपना भाई, जिससे उसका खून का रिश्ता था, लेकिन जिसने अन्याय किया था. कहते हैं, खून पानी से गाढ़ होता है. विभीषण के सामने सवाल था : अपने भाई की जान बचाए और अन्याय का समर्थन करे या आक्रमणकारी राम की सहायता करे और न्याय पाने में उनकी मदद करे. विभीषण ने संबंध की तुलना में कर्तव्य को चुना. उसे सिर्फ ‘घर का भेदी’ के रूप में याद करना उसके साथ अन्याय है. कायदे से तो राम को पूजने वाले समाज के घर-घर में विभीषण की पूजा होनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा वही समाज कर सकता था, जो कर्तव्य को सब से ऊंचा स्थान देने के लिए तैयार हो. यही बात कैकेयी और भरत के रिश्ते के बारे में कही जा सकती है. भरत ओछे होते तो तुरंत अयोध्या आकर अपना राज्याभिषेक करा सकते थे. लेकिन जब वे अयोध्या पहुंचे और उन्हें सारी बात पता चली तो सब से पहले वे जंगल की ओर भागे और अयोध्या वापस चलने के लिए राम से विनती करने लगे. राम नहीं माने, तो उनकी चरण पादुका ले कर भरत अयोध्या लौटे और उसे ही सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर राम की ओर से शासक का कर्तव्य निभाने लगे.
ये सभी उदाहरण राजवंश के हैं यानी राजनीति के हैं. तीनों उदाहरणों में हम पाते हैं कि सत्ता और संबंध के मुकाबले कर्तव्य को उच्चतम स्थान दिया गया है. राम कथा वाले इसी भारत में किस तरह के उदाहरण सामने आ रहे हैं? अखिलेश यादव की हार में निश्चय ही एक कारण यह रहा होगा कि उन्होंने अपने पिता का असम्मान किया था, और सत्ता संघर्ष में उन्हें पराजित कर दिया था. हां, अखिलेश ने किसी बड़े लक्ष्य के लिए ऐसा किया होता, अगर जनता समझती कि पुत्र कोई बड़ा काम करना चाहता है और पिता उसकी राह में बाधा पैदा कर रहा है, तो निश्चय ही पुत्र का साथ देती.
सब से आश्चर्य की बात है कि भारतीय जनता पार्टी भारतीयता की बात करती है, हिंदू आदशरे और परंपराओं की रक्षा करने की बात करती है, लेकिन क्षुद्र स्वार्थ के लिए पुत्र को पिता के बरक्स खड़ा कर देती है. इधर, पिता यशवंत सिन्हा ने एक अखबार में लिखा भर था कि देश की अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है, उधर अगले ही दिन दूसरे अखबार में पुत्र जयंत सिन्हा का लेख आ गया कि नहीं, अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी है. पिता-पुत्र दोनों भाजपा में हैं, पिता भाजपा की एक सरकार में मंत्री थे, तो पुत्र भाजपा की दूसरी सरकार में मंत्री है. पुत्र पिता की मान्यता के विरुद्ध लेख नहीं लिखता, तब भी भाजपा को कोई नुकसान नहीं होता. न पुत्र को सरकार से निकाल दिया जाता. तो फिर भाजपा ने हिंदू संस्कारों की दुहाई दे कर पुत्र को ऐसा करने से क्यों नहीं रोका? क्या भारतीय संस्कृति पितृद्रोह की संस्कृति है.
इसके पहले भाजपा बिहार में दो मित्रों के बीच फूट डाल चुकी थी. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के बीच जो भी मतभेद थे, वे दो मित्रों और सहयात्रियों के बीच के मतभेद थे. बातचीत द्वारा उन्हें सुलझाया जा सकता था. लेकिन भाजपा ने सत्ता का लालच दे कर मित्र-विग्रह करवा दिया. क्या यह भी भारतीय संस्कृति है?
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