वैश्विकी : लोकतंत्र को रास्ते पर लाने वाला चुनाव
नेपाल में पिछले दिनों सम्पन्न हुए स्थानीय निकायों के तीसरे और आखिरी दौर के चुनावों ने वहां की अस्थिर राजनीति और लड़खड़ाते लोकतंत्र को स्थिरता देने का मार्ग प्रशस्त किया है.
![]() लोकतंत्र को रास्ते पर लाने वाला चुनाव |
इन चुनावों में अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिए भारी संख्या में लोगों का घरों से बाहर निकलना बताता है कि उनकी धमनियों में रक्त के साथ-साथ लोकतांत्रिक मूल्य भी तेजी से दौड़ने लगा है. पहले के दो दौरों में करीब 73 फीसद लोगों ने मतदान किया था. आखिरी दौर के चुनाव में यह बढ़कर 77 फीसद तक पहुंच गया. नेपाल के राजनीतिक इतिहास में इतना भारी मतदान पहले कभी नहीं हुआ था. इसका श्रेय नेपाली जनता के साथ-साथ पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड और मौजूदा प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा को दिया जाना चाहिए. इन्होंने अनेक बाधाओं को पार कर स्थानीय निकाय के चुनावों को सफलता से सम्पन्न कराया.
अब प्रांतीय और राष्ट्रीय असेम्बली के चुनाव क्रमश: छह और सात नवम्बर को होने वाले हैं. देउबा सरकार स्थानीय चुनावों को सफलता से सम्पन्न कराने के बाद उत्साहित है. उसे प्रांतीय और राष्ट्रीय असेम्बली के चुनावों के सम्पन्न होने में कोई बड़ा अवरोध दिखाई नहीं दे रहा है. इस बात पर किसी तरह के शक-शुबहा की गुंजाइश नहीं है कि ये दोनों चुनाव नेपाल के राजनीतिक इतिहास में गेम चेंजर साबित हो सकते हैं. लेकिन चुनावों की सफलता नेपाल के मुश्किल भरे राजनीतिक संक्रमण के अंत की शुरुआत नहीं है. वास्तव में स्थानीय चुनावों से केवल संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना के कठिन काम की शुरुआत हुई है, जो 2006 के जनांदोलन का मुख्य राजनीतिक लक्ष्य था.
नेपाल के नये संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र की अवधारणा त्रि-स्तरीय है. आम नेपाली इसको लेकर चिंतित है कि त्रि-स्तरीय व्यवस्था में स्थानीय, प्रांतीय और राष्ट्रीय सरकारों के बीच तालमेल कैसे कायम हो पाएगा! संसाधनों और सत्ता का उचित तरह से बंटवारा कैसे हो पाएगा? हालांकि संविधान के तहत तीनों सरकारों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया है, फिर भी यह आशंका तो बनी हुई है कि सुशासन के एक ढांचे के तहत केंद्रीय, प्रांतीय और स्थानीय सरकारों की पारस्परिक निर्भरता किस तरह का आकार ग्रहण करेगी. दरअसल, नेपाल में लोकतंत्र के साथ अनेक प्रयोग हुए हैं और ये सभी असफल रहे हैं. अब यह नया प्रयोग कितना सफल हो पाता है, अभी से कहना मुश्किल है, क्योंकि दक्षिण एशिया के अन्य देशों की तरह नेपाली राजनीति और समाज भी भ्रष्टाचार की भेेंट चढ़ गया है. आम जनता के बीच नेताओं और नौकरशाहों की साख गिरी हुई है. पिछले छह दशकों में देश को गर्त में पहुंचाने के लिए नेताओं को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है. इसमें दो राय नहीं है कि जनता का राजनीतिक विश्वास खोने वाला वर्ग देश को अ-शासित समाज में तब्दील कर सकता है. दुर्भाग्य से इसके खतरे बने हुए हैं. इसलिए नागर समाज के साथ-साथ विभिन्न सामाजिक संगठनों को भी आने वाली नई सरकार के कामकाज पर निरंतर निगरानी रखनी होगी. देश की राजनीति को स्थिर और समावेशी बनाने का उनके पास यह अच्छा मौका है. इसलिए इसे हाथ से निकलने नहीं दिया जाना चाहिए.
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