जर्मनी : दक्षिणपंथी दल का उभार

Last Updated 27 Sep 2017 04:14:47 AM IST

24 सितम्बर 2017 को जर्मनी में सम्पन्न हुए चुनाव के जो परिणाम आए, उनमें एक तो अनुमानों के अनुकूल रहा, लेकिन कम-से-कम दो बहुत हद तक बेहद प्रतिकूल.


जर्मनी : दक्षिणपंथी दल का उभार

अनुकूल यह रहा कि एंजेला मर्केल जीत गई. लेकिन जो प्रतिकूल रहा उनमें एक यह है कि दुनिया की कद्दावर नेता मर्केल अपनी पार्टी के सबसे खराब प्रदर्शन के साथ बुण्डस्टॉग पहुंची हैं और दूसरा यह कि 13 प्रतिशत वोटों के साथ धुर दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर ड्यूशलैण्ड (एएफडी) इस सदन में पहुंच गई.

एक ऐसी पार्टी का आगे आना, जो नाजी इतिहास को लेकर बेहद संवेदनशील है, जो मुसलमानों के खिलाफ है और जिसका नेता द्वितीय वियुद्ध में नाजी सेना की कार्रवाई को उचित ठहराने की कोशिश करता है, क्या यह संदेश नहीं देता कि अब जर्मनी भी पोस्ट ट्रूथ युग में प्रवेश कर चुका है? अगर ऐसा हुआ तो क्या जल्द ही मरकोजीवाद का प्रभाव पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा? क्या यूरोपीय संघ की पुनर्रचना के लिए मर्केल-मैक्रों स्ट्रैटेजी का उद्देश्य सार्थक हो पाएगा या फिर यूरोप किसी नये करवट बैठेगा?

आखिर वह वजह क्या रही कि जर्मनी मतदाताओं ने न ही पूरी तरह से पूंजीवाद को स्वीकार किया और न ही समाजवाद को? जर्मन नतीजे पूरी तरह से अप्रत्याशित नहीं हैं क्योंकि यूरोप में इस वर्ष होने वाले चुनाव को लेकर जो कयास लगाए जा रहे थे, थोड़े से परिवर्तनों के साथ परिणाम लगभग वैसे ही आए हैं. हां, मर्केल को लेकर थोड़ा ज्यादा ही आशावाद चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में दिखाया गया था और दक्षिणपंथ को तो जगह ही नहीं दी गई थी. पता नहीं क्यों सर्वेक्षणों में ‘पैट्रियोटिक यूरोपियन्स अगेंस्ट द इस्लामाइजेशन ऑफ द वेस्ट’ (पेगिडा) आंदोलन की पृष्ठभूमि में पुनर्जीवित हुए विचारों का अध्ययन क्यों नहीं किया गया?

खैर, जो नतीजे आए हैं वे ऊपरी तौर पर तो सामान्य कहे जा सकते हैं, लेकिन वास्तव में जर्मनी को एक टर्निग प्वाइंट पर ले जाते हुए दिख रहे हैं. आगे का जर्मनी कैसा होगा और यह यूरोप को किस प्रकार से प्रभावित करेगा, अब यह देखना है. ध्यान रहे कि नतीजों के अनुसार चांसलर एंजेला मर्केल की सीडीयू-सीएसयू पार्टी को 33 प्रतिशत मत मिले हैं, मार्टनि शुल्त्ज की एसपीडी को 20.5 प्रतिशत और धुर दक्षिणपंथी एएफडी को 13 प्रतिशत. सीटों के आधार पर देखें तो 709 सीटों में से सीडीयू-सीएसयू को 246, एसपीडी को 153, लेफ्ट को 69, ग्रीन को 67, एफडीपी को 80 और एएफडी को 94 सीटें मिली हैं. दूसरे वियुद्ध के बाद यह पहला अवसर है, जब दक्षिणपंथी पार्टी इतनी प्रभावशाली दिखी है. हालांकि ब्रिटेन में यूरोपीय यूनियन विरोधियों (ब्रेग्जिट) और अमेरिका में ट्रंप की सफलता से उठी लहर कुछ हद तक समाप्त होती दिख रही थी. लेकिन ऐसा लगता है कि यूरोप के नेता, जिसमें मर्केल भी शामिल हैं, यूरोप की जनता का मूड विशेषकर तीन मुद्दों को लेकर समझ नहीं पा रहे हैं. पहला आव्रजकों को लेकर, दूसरा उनकी आर्थिक नीतियों को लेकर और तीसरा ट्रंप जैसी विचारधारा की स्वीकार्यता को लेकर. यही वजह है कि यूरोप में इस वर्ष हो रहे चुनाव में निष्कर्ष अनुमानों के विपरीत देखने को मिल रहे हैं.

जहां तक जर्मनी का विषय है तो यहां के चुनाव को देखते हुए एक अहम सवाल यह उठता है कि दुनिया की कद्दावर नेता बन कर उभर चुकीं मर्केल को अपनी पार्टी के इतिहास के सबसे बुरे परिणामों का सामना आखिर क्यों करना पड़ा? वामपंथी एसपीडी के मार्टिन शुल्त्ज, जो कुछ समय तक काफी प्रभावशाली दिख रहे थे, उन्हें जर्मन जनता ने मर्केल के विकल्प के रूप में क्यों नहीं चुना? सवाल यह भी उठता है कि जर्मन मतदाताओं ने पूंजीवाद एवं समाजवाद दोनों पर पूरी तरह से भरोसा न करते हुए दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद को ताकत क्यों प्रदान की? एकाएक तीसरे नंबर पर दक्षिणपंथी पार्टी का आ जाना, यह बताता है कि जर्मनी के लोगों का माइंडसेट बदल रहा है. इसका असर भी अब जर्मनी पर दिखना चाहिए.

उल्लेखनीय है कि एएफडी की सफलता के एक घंटे के भीतर ही संयुक्त लीडरशिप ने अपना उद्देश्य स्पष्ट कर दिया. इसका उद्देश्य है-मर्केल की सरकार का शिकार और अपने लोगों को अपना देश वापस करना. यानी ट्रंप की भाषा में कहें तो मजबूत जर्मन धड़ा एएफडी के नेतृत्व में नये जर्मनी का निर्माण करना चाहता है, जहां नाजी काल जैसा ताकतवर जर्मनी दिखे.  सवाल यह उठता है कि एएफडी का कोई आर्थिक एजेंडा था, जिसे लेकर जर्मन मतदाताओं ने ऐसा रुझान दिखाया अथवा उसका कोई हिडेन एजेंडा है (जैसा कि इस समय दुनिया के तमाम देशों में दिख रहा है) जिसे लोगों ने अधिक पसंद किया है?

इसका मतलब यह हुआ कि जर्मनी में भी अमेरिका एवं रूस की भांति एक ऐसी विचारधारा तेजी से उभर रही है, जो कट्टरपंथी राष्ट्रवाद को प्रश्रय दे रही है, जो इस्लामविरोधी एवं जीनोफोबिक है, जो यूरोपीय संघ विरोधी है और वैीकरण विरोधी भी. जाहिर है कि जर्मन संसद में एक बड़ा स्पेस पा जाने के बाद एएफडी मर्केल उन आर्थिक नीतियों, जिनकी शुरुआत उन्होंने सरकोजी के साथ मिलकर की थी या अब वे मैक्रों के साथ मिलकर करना चाहती हैं, के समक्ष कड़ी चुनौती पेश करेगी. फिलहाल जर्मनी का चुनाव न केवल जर्मनी में उन विचारधाराओं को पुन: शक्ति प्राप्त करने और उभरने का संकेत दे रहा है, जो कट्टर राष्ट्रवादी तो हैं, लेकिन मुसलमानों के खिलाफ हैं और द्वितीय वियुद्ध में नाजी सेना की कार्रवाई को उचित ठहराती है.

रही बात भारत के साथ जर्मन संबंधों की, तो इस पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, लेकिन यदि कट्टर राष्ट्रवादियों का दबाव बढ़ा तो संभव है कि कोई नई इमीग्रेशन नीति आए अथवा नियम सख्त हों, जिससे भारत के युवाओं के लिए जर्मनी जाने के अवसर घटें. बहरहाल बाज और चीता की दोस्ती बनी रहेगी और ‘एजेंडा फॉर इंडिया-जर्मन पार्टनरशिप इन द ट्वेंटी फस्र्ट सेंचुरी’ सार्थक परिणाम देगा. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि भारत अपनी छवि बदले क्योंकि उसके पत्रकारों से लेकर रणनीतिकार तक यह मानते हैं कि भारत भ्रष्टाचार और गरीबी में आकंठ डूबा हुआ है.

डॉ. रहीस सिंह


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