तलाक आसान बनाने के संदर्भ

Last Updated 18 Sep 2017 05:24:39 AM IST

कहते हैं कि जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं, लेकिन आपाधापी भरे इस आधुनिक जीवन में अब यह मान्यता भी शादियों के लंबा और निरापद चलने की गारंटी नहीं रही. तो शादियों के बंधन तड़ातड़ टूटने लगे हैं.


तलाक आसान बनाने के संदर्भ.

ऐसे में पति-पत्नी को सम्मानजनक तरीके से जुदा हो जाने में तलाक एक कानूनन विकल्प है. हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 बी (2) के तहत तलाक का प्रावधान है. इसके तहत हिन्दू रीति-रिवाज के अंतर्गत हुए विवाह को दोनों पक्ष परस्पर सहमति से खत्म कर सकते हैं.

प्रावधान के मुताबिक, अदालत द्वारा तलाक की अनुमति मिलने में सामान्यत: 18 माह का समय लगता है. इसमें बारह माह के दौरान दंपति को एक दूसरे से अनिवार्यत: पृथक रहना होता है. बाद के छह माह में संभावना की पड़ताल की जाती है कि दंपति के बीच सुलह-सफाई की कोई गुंजाइश बची भी है कि नहीं. यह अवधि बीतने पर अदालत मामले की सुनवाई या निपटारा कर देती है. लेकिन एक हालिया मामले में शीर्ष अदालत ने व्यवस्था दी है कि ‘धारा 13 बी (2) में उल्लिखित समयावधि अनिवार्य नहीं बल्कि निर्देशात्मक है, यह अदालत पर निर्भर करता है कि प्रत्येक मामले की परिस्थितियों और तथ्यों को ध्यान में रखते हुए समयावधि की अनुमति दे या नहीं.

परिस्थितियों और तथ्यों के आधार पर अनुमान लगा सकती है कि संबद्ध  पक्षों में सुलह-सफाई की गुंजाइश बची है, या नहीं. अगर दोनों पक्ष सहजीवन के इच्छुक नहीं हैं, तो अदालत को दोनों पक्षों को इस बेहतर विकल्प की अनुमति देने से गुरेज नहीं करना चाहिए.’ लेकिन यह अनुमति अदालत द्वारा विशेष परिस्थितियों और विवाद में पड़े उन दंपति को ही प्रदान की जा सकती है, जिनने एक दूसरे से तलाक के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है. अदालत द्वारा मामले की  सुनवाई आरंभ करने या फैसला सुनाने से पूर्व जो छह माह का समय दंपति को दिया जाता है, वह पति-पत्नी के लिए अपना विवाह बचाने का अंतिम अवसर होता है. लेकिन दंपति के परस्पर संबंध में इस कदर बिगाड़ आ चुका हो कि वह एक साल या उससे भी ज्यादा समय से अलग रह रहा हो तो सुलह-सफाई के लिए नियत छह माह की अवधि का कोई अर्थ नहीं है.

इस अवधि पर गौर किए जाने का मतलब मामले के निपटारे में बेवजह का विलंब ही होगा. जस्टिस एके  गोयल और जस्टिस यूयू ललित की पीठ ने कहा, ‘हालांकि शादी को बचाने के हरसंभव प्रयास होने चाहिए, लेकिन दोनों पक्षों के फिर से एक साथ आने और नये सिरे से सहजीवन स्वीकारने की संभावनाएं न बची हों  तो अदालत को इतना अधिकार संपन्न होना चाहिए कि दंपति को बेहतर विकल्प की अनुमति प्रदान कर सके.’ ऐसी परिस्थितियों में अदालत मामले में इस पहली के गौर कर सके कि सुनवाई में विलंब से बाद में पुनर्वास संबंधी तकाजे प्रभावित हो सकते हैं.



यह संशोधन इस विचार से प्रेरित है कि साथ न रहने के इच्छुक दंपति के विवाह को जबरिया बनाए रखने से कुछ हासिल नहीं हो सकता. छह माह की सुलह-सफाई की अवधि कानूनन तय की गई थी, ताकि दंपति परस्पर सौहार्द की संभावनाओं के बावजूद जल्दबाजी में फैसले के नुकसान से बच सके. अदालत द्वारा दी गई इस व्यवस्था से अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले दंपति और अदालत के समय की बचत  हो सकेगी. पति-पत्नी में से कोई भी एक साल या उससे ज्यादा  समय से अलग रहा है, तो हकीकतन कोई संभावना नहीं है कि वे फिर से एक साथ रहने को सहमत होंगे. ऐसे मामलों में सुलह-सफाई का समय देने से अदालत के समय की बर्बादी के साथ ही फैसले में भी बेवजह का विलंब होगा.

तो अब स्थिति यह  है कि छह माह की सुलह-सफाई का समय दिए जाना अदालत की मर्जी पर है. अगर दंपति के तकरे और परिस्थितियों से अदालत को लगता है कि छह माह की अवधि देने की जरूरत नहीं है, तो वह छह माह की अनुमति न देने की बाबत फैसला कर सकती है. अलबत्ता, दंपति के बीच सुलह होने की जरा-सी भी संभावना हो तो अदालत को उसे हर हाल में मौका देना चाहिए. विवाह दो व्यक्तियों का ही नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन होता है, और जब विवाह-विच्छेद होता है, तो दो जोड़ीदार ही जुदा नहीं होते बल्कि दो परिवारों की राहें भी जुदा हो जाती हैं. यह संशोधन बेहद जटिल है, और इसीलिए इसे मुफीद परिस्थितियों में लागू नहीं किया गया तो यह दो परिवारों के बीच विग्रह का सबब बन सकता है. लेकिन उसे अच्छे से लागू किया गया तो बेहद लाभकर भी साबित होगा.  

दीक्षा


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