स्कूल : राम भरोसे सुरक्षा-व्यवस्था

Last Updated 16 Sep 2017 12:45:47 AM IST

गुरुग्राम स्थित रेयान इंटरनेशनल स्कूल में दूसरी कक्षा के छात्र प्रद्यूमन ठाकुर की हत्या के बाद स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा को लेकर सवाल फिर से उठने लगे हैं.


स्कूल : राम भरोसे सुरक्षा-व्यवस्था

ऐसा नहीं है कि यह सवाल पहली बार उठा है, या बाद में नहीं उठेगा. मौजूदा संदर्भ में जब केंद्रीय माध्यमिका शिक्षा बोर्ड को सुरक्षा के लिए नये दिशा-निर्देश जारी करने पड़ रहे हैं, तो इसका यह मतलब निकाला जा सकता है कि स्कूलों को याद दिलाने के लिए ऐसा करना पड रहा है, या वे समय के पैमाने पर पुराने पड़ते जा रहे हैं.

इससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि पहले जारी सुरक्षा मानकों का ठीक से अनुपालन नहीं हो पा रहा था. वैसे भी स्कूलों में होने वाली दुर्घटनाओं के बाद इसमें किसी किन्तु-परन्तु की गुंजाइश नहीं रह जाती. ऐसे में सवाल उठना लाजिम है कि स्कूलों में सुरक्षा मानकों का समुचित क्रियान्वयन क्यों नहीं होता? क्या इसके लिए हमारी शिक्षा-प्रणाली जिम्मेदार नहीं है? क्या शिक्षा के व्यावसायीकरण के साथ सुरक्षा की समस्या गंभीर नहीं हो गई है?

जब स्कूली बच्चों के साथ दुर्घटनाएं हो रही हैं, जो जाहिर है कि सुरक्षा मानकों का समुचित क्रियान्वयन नहीं हो रहा है. इसके लिए स्कूल प्रबंधन से लेकर सरकारी एजेंसी-दोनों ही जिम्मेदार हैं. धन के अभाव में सरकारी स्कूल सुरक्षा के प्रति पर्याप्त ध्यान न दे पाने के लिए अभिशप्त हैं, लेकिन निजी स्कूलों की स्थिति भी कुछ अलग नहीं लगती. मुनाफा कमाने की चाह में कतिपय निजी स्कूलों में इसकी अनदेखी कोई अचरज की बात नहीं है. सीसीटीवी का अभाव, खतरनाक भवन, अभिभावक-शिक्षक-छात्र समिति का अभाव या निष्क्रियता, प्रशिक्षित सुरक्षा कर्मचारी, सभी कर्मचारियों की पुलिस जांच और समय-समय पर स्थानीय थानों से स्कूलों की सुरक्षा ऑडिट जैसे पहलुओं पर स्कूल प्रबंधन को ध्यान देने की जरूरत  है.

ऐसी स्थिति में सरकारी ही नहीं, निजी स्कूल भी, चाहे उन्हें अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान का दर्जा क्यों न प्राप्त हो, बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी से सरकार बच नहीं सकते. स्कूली बच्चों की सुरक्षा का संबंध स्कूलों की चारदीवारी तक ही सीमित नहीं है. स्कूल परिसर के बाहर भी बच्चों के साथ दुर्घटना हो सकती है. शिक्षा-व्यवस्था में नेबरहुड की अवधारणा के पूर्णत: स्थापित न होने या उच्च गुणवत्ता के स्कूलों के अभाव के कारण बच्चों को स्कूल के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है. अगर बच्चों को ले जाने वाली गाड़ी उन्हें घर से कुछ दूर छोड़ दे, तो बच्चों के सड़क पार करने या खो जाने या अपहरण का डर रहता है. अगर पड़ोस में उच्च गुणवत्ता के स्कूल उपलब्ध हो जाएं या पड़ोस के बच्चों को स्कूलों द्वारा नामांकन के लिए नकारा न जाए, इस समस्या से बचा जा सकता है. लेकिन ऐसा न हो पाने के पीछे दो कारण हैं.

एक तो कोठारी आयोग की अनुशंसा के 50 वर्ष गुजर जाने के बाद भी सरकार शिक्षा पर कुल जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च नहीं करती. अगर सरकारी स्कूल मात्रा और गुण की दृष्टि से अपेक्षा के अनुरूप होते, तो सुरक्षा की समस्या कुछ कमतर हो जाती क्योंकि पास में ही अच्छे स्कूल मिल जाते. सरकारी स्कूलों की जगह तेजी से बढ़ने वाले निजी स्कूलों का मूल मकसद मुनाफा कमाना होता है. दूर-दूर से गाड़ियों में भरकर बच्चों को स्कूल तक लाना इस पेशे का हिस्सा बन गया है. पिछड़ी-गरीब बस्तियों में अच्छे स्कूलों के अभाव से इसे और बढ़ावा मिलता है. अगर पिछड़ी बस्तियों में ऐसे स्कूल खुल भी जाएं, तो कोई गारंटी नहीं कि सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग के छात्रों को वहां अपेक्षित नामांकन मिल जाएं. हालांकि शिक्षा का अधिकार कानून ऐसे तबकों के लिए 25 प्रतिशत सीटों के आरक्षण का प्रावधान करता है, पर यह नियम अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान का दर्जा प्राप्त स्कूलों पर लागू नहीं होता.

1991 में आई नई आर्थिक नीति के पहले तक स्कूलों में सुरक्षा को लेकर इतनी चिंता देखी-सुनी नहीं जाती थी. लेकिन आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में जब शिक्षा को सेवा की जगह व्यवसाय के रूप में देखने की प्रवृत्ति  तेजी से बढ़ी, तब से निजी स्कूलों की बाढ़ ही आ गई. छोटे कस्बों तक में भी निजी स्कूल खुलने लगे. स्कूल का ढांचा बड़े-बड़े होटलों की तरह बनने लगा. ऐसे में स्कूल परिसर में दुर्घटनाओं का बढ़ना स्वाभाविक है, चाहे वह स्वीमिंग पूल से हो या बिजली से. जब स्कूल और अभिभावक का रिश्ता क्रेता और विक्रेता का बन जाए तो बेतहर सेवा के लिए अभिभावक तो सवाल करेंगे ही.

सत्येंद्र प्रसाद सिंह
लेखक, राष्ट्रीय सहारा


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