कहां-कहां से ठुकराए गए रोहिंग्या और किन मुश्किलों से जूझ रहे?

Last Updated 15 Sep 2017 12:12:44 PM IST

किसी की आंख का नूर हूं न किसी के दिल का क़रार हूं, जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्के ग़ुबार हूं। य़े अशार आख़िरी मुग़ल बागशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में अंग्रेज़ी हुकुमत की क़ैद में म्यांमार के यंगून जो उस वख़्त के बर्मा का रंगून था, वहां कहे थे।


(फाइल फोटो)

या फिर यूं कहा जाए कि उन्होंने अपना दर्द इस शेर के ज़रिए बयान किया था। आज की तारीख़ में म्यांमार की रोहिंग्या बिरादरी पर हो रहे मज़ालिम (अत्याचार) और पूरी दुनिया से जानवरों से बदतर दुत्कारे जाने और हर मुल्क के दरवाज़े पर उनके लिए लगे मुंह चिढ़ाते मज़बूत तालों के बीच ये शेर उन पर भी सटीक लगता है। मानों ये शेर उस मज़लूम और कमज़ोर बादशाह ने ख़ुद से कही ज़्यादा इन रोहिंग्या लोगों की मुस्तकबिल (भविष्य) में होने वाली हालत के लिए कहा था। ज़ुल्म और बरबरयित अपनी बुलंदतर बलंदी (पराकाष्ठा) पर है, जिसे आज म्यांमार के पर्दे पर दुनिया देख रही है।

आइये अब जानते है कि क़त्ल और ग़ारत का ये सिलसिला (नरसंहार) शुरू कहां से और क्यों हुआ? 2012 में म्यांमार में एक बौद्ध लड़की की इज्जत को मिट्टी मे मिलाने और बाद उसको क़त्ल करने के इल्ज़ामात के बीच रोहिंग्या बिरादरी से नाराज़ सेना ने अपनी तोपों के मुंह इनकी तऱफ़ कर दिए। बस फिर क्या था मानो ज़मीन पर ही क़यामत बरपा गयी हो। मांओं के शिकम (गर्भ) में मौजूद मासूमों से लेकर क़ब्र में पैर लटकाए (मरने के क़रीब) बूढ़ों तक को नहीं बख्शा गया। एक लम्हे में सब आतंकवादी क़रार दे दिए गये। ऐसे दहशतगर्द जिनमें से किसी के पास अपने बचाव के लिए एक पत्थर भी नसीब नहीं है।

मासूम तोतली बातें करने वाले बच्चे, अपनी आबरू को तार-तार करवाने पर मजबूर औरतें, बिस्तर से बिना मदद के हिल भी न पाने वाले बुज़ुर्ग सबका बस एक नाम एक चेहरा ‘आतंकवाद’। फिर इन लोगों ने वहां से समंदर के रास्ते नावों में सवार होकर जान बचा-बचाकर भागना शुरू किया और विदेशी मीडिया ने इनको बोट पीपल का नाम दिया। इनकी जड़ें बांग्लादेश में मौजूद थीं तो काफ़ी तादाद में ये बांग्लादेश पहुंचे। शुरुआती दौर में बांग्लादेश इनके लिए ज़रा नर्म भी रहा। पर इनकी बदक़िस्मती ने यहां भी इनका दामन नहीं छोड़ा और बांग्लादेश ने हाथ खड़े कर दिए। थाईलैंड ने घर के दरवाज़े पर आए भिखारी को बतौर भीख खाना तो दे दिया पर घर में घुसने कि जुर्रत न हो इसके लिए आखें दिखा दीं। अब इन्होंने बड़ी उम्मीद के साथ मुस्लमान मुल्क होने की बिनाह पर मलेशिया और इंडोनेशिया के दरवाज़े पर दस्तक दी। पर उन्होंने तो इन्हें पहचानने तक से इंकार कर दिया। वाह रे कलमा गो मुसलमाल और हाफ़िज़े क़ुरान।

इस सबके बीच हज़ारों की तादाद में रोहिंग्या मुसलमानों ने भारत का रुख़ किया और पूरी कोशिश की कि ये ख़ुद को म्यांमार बॉर्डर से दूर रखें। ये लोग भारत के अलग-अलग हिस्सों- दिल्ली, आन्ध्र प्रदेश, केरल, असम, उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में फैल गये। इन दो साल में भारत में इनकी तादाद भी बढ़ी है। जैसा कि केंद्र सरकार का कहना है कि ये जब आए थे तो दस हज़ार थे अब इनकी तादाद 40 हजार है। सरकार चाहती है कि ये वापस भेजे जाएं क्योंकि ये लोग हमारी ज़िम्मेदारी नहीं हैं।

इस मुद्दे को म्यांमार में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंग सान सू ची से मुलाक़ात के दौरान उठाया भी लेकिन सू ची ने बड़े शातिराना अंदाज़ से मामला गोल कर दिया। फ़िलहाल भारत में रहने वाले रोहिंग्या लोगों की क़िस्मत का फ़ैसला अब सुप्रीम कोर्ट के हाथ में है। अब ख़ुद रोहिंग्या मुसलमानों ने भी अपनी ख़ामोशी तोड़ते हुए अरज़ी दाख़िल की है, जहां प्रशांत भूषण भी इन लोगों को वापस मौत के मुंह में भेजने के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। वहीं सरकार का कोर्ट से यही कहना है कि इनको भेजना ही भारत के हक़ में बेहतर होगा। क्योंकि ये देश के लिए ख़तरा हैं।

ज़ेबा ज़ैदी


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