सामयिक : कटार बनी तेल की धार

Last Updated 15 Sep 2017 05:56:04 AM IST

तेल के दाम तीन साल के अपने शिखर पर पहुंच गए हैं. मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद, 2014 की 13 सितम्बर को दिल्ली में पेट्रोल का दाम 68 रुपये 51 पैसा प्रति लीटर था, जो इसके ठीक तीन साल बाद, इस 13 सितम्बर को बढ़कर 70 रुपये 38 पैसा प्रति लीटर के स्तर पर पहुंच गया है.


कटार बनी तेल की धार

बहरहाल, मुद्दा सिर्फ तेल के दाम के तीन साल के शीर्ष पर पहुंच जाने का ही नहीं है. यह भी गौरतलब है कि पिछले कुछ अर्से से तेल के दाम तेजी से बढ़ रहे हैं. जब से देश में हर रोज तेल का दाम तय करने की नई व्यवस्था शुरू हुई है, 1 जुलाई से अब तक पेट्रोल के दाम में पूरे 6 रुपये 17 पैसा प्रति लीटर की बढ़ोतरी हो चुकी है. इसी दौरान डीजल के दाम में 5 रुपये 36 पैसे की बढ़ोतरी हुई है.

लेकिन असली मुद्दा सिर्फ तेल के दाम बढ़ोतरी पर होने का भी नहीं है. असली मुद्दा यह है कि यह बढ़ोतरी तब हो रही है, जब हर लिहाज से तेल के दाम में कमी होनी चाहिए थी और वह भी छोटी-मोटी नहीं, उल्लेखनीय कमी. सभी जानते हैं कि भारत अपनी तेल की अपनी जरूरतों के लिए मुख्यत: तेल के आयात पर निर्भर है. वह अपनी जरूरत का करीब 85 फीसद कच्चा तेल आयात से ही हासिल करता है.

और यह भी एक जाना-माना तथ्य है कि हमारे देश में शोधित तेल बाजार में आने तक की कुल लागत में, 80 फीसद से ज्यादा हिस्सा कच्चे तेल को हासिल करने का ही होता है. ऐसी स्थिति में यह समझने के लिए अर्थशास्त्र के किसी विशेष ज्ञान की आवश्यकता नहीं होगी कि हमारे देश में तेल की वास्तविक लागत और सामान्य स्थिति में कीमत भी, सबसे ज्यादा आयातित कच्चे तेल के दाम से यानी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम में उतार-चढ़ाव से ही प्रभावित होनी चाहिए.

मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद के तीन साल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम न सिर्फ लगातार गिरावट पर रहे हैं बल्कि उनमें भारी गिरावट हुई है. मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद, 2014 की जुलाई में भारत की कच्चे तेल के आयात की बास्केट के दाम 112 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर थे. इसके ढाई-तीन महीने में ही, 13 सितम्बर तक कच्चे तेल का भाव गिरकर 106 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर आ गया था. इसके बाद भी कच्चे तेल का दाम आम तौर पर गिरावट पर ही रहा है और घटते-घटते इस समय 54 डालर प्रति बैरल के स्तर पर आ गया है.

बहरहाल, जैसा कि तार्किक  था, मोदी सरकार के पहले साल में कच्चे तेल के दाम में इस गिरावट का असर, पेट्रोल-डीजल के दाम में कुछ न कुछ गिरावट के रूप में दिखाई भी दे रहा था. 2014 के जुलाई और सितम्बर के बीच, कच्चे तेल के दाम में 6 डॉलर प्रति बैरल की जो कमी हुई थी, उससे दिल्ली में पेट्रोल का दाम भी 73 रुपया 60 पैसा प्रति लीटर से घटकर 68 रुपया 51 पैसा रह गया था. कच्चे तेल के दाम में कमी के साथ, घरेलू बाजार में पेट्रोल व डीजल के दाम में कमी का यह सिलसिला कुछ आगे भी चला. यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री ने तेल के दाम में इस कमी का श्रेय लेने की यह कहकर कोशिश भी की थी कि उनकी खुशकिस्मती से ही सही, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम गिरने से, देश के गरीबों की जेब में चार पैसे फालतू जा तो रहे हैं!

मगर सरकार की नीयत बदल गई और उसने कच्चे तेल के दाम में गिरावट के अतिरिक्त लाभ में सिर्फ दांत नहीं गड़ाए, बाकायदा लूट शुरू कर दी. इसी का नतीजा है कि जहां सितम्बर 2014 में जब कच्चे तेल का भाव 106 डॉलर के स्तर पर था, दिल्ली में पेट्रोल का दाम 68 रुपये 51 पैसा था और आज जब कच्चे तेल का भाव 54 डालर प्रति बैरल के स्तर पर है, दिल्ली में ही पेट्रोल का भाव बढ़कर 70 रुपये 38 पैसा प्रति लीटर हो गया है. और यह हुआ है कि सरकार द्वारा उत्पाद शुल्क में और अन्य करों में भी बढ़ोतरी के जरिये और तेल कंपनियों व रिफाइनरियों द्वारा भी फालतू मुनाफे के जरिये, कच्चे तेल के दाम में गिरावट का सारा लाभ झपट लिए जाने के जरिये. मोदी सरकार ने नवम्बर 2014 के बाद से पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क में पूरे ग्यारह बार बढ़ोतरी की है. यह पेट्रोल पर प्रति लीटर 12 रुपये और डीजल पर 13 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी बैठती है. 

अचरज की बात नहीं है कि 2014-17 के दौरान सरकार का उत्पाद शुल्क संग्रह, 99,194 करोड़ रुपये से छलांग लगाकर 2,42,691 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है. 2013-14 से 2016-17 के बीच वैट और बिक्री कर से राज्यों की कमाई भी 1,29,045 करोड़ रुपये से बढ़कर 1,66,378 करोड़ रुपये हो गई है.

इसीलिए आज उपभोक्ताओं से एक लीटर पेट्रोल के लिए जो 70 रुपये 38 पैसे वसूल किए जा रहे हैं, उसमें से सिर्फ 30 रुपये 70 पैसे सरकारी तेल कंपनियां डीलर से वसूल करती हैं, जबकि करीब 40 रुपये में से डीलर डिस्काउंट निकालकर बाकी सब सरकार बटोर लेती है. जाहिर है कि मोदी सरकार तेल की इस लूट को जारी रखना चाहती है. इसीलिए, तेल मंत्री ने तेल के दाम को ‘तेल कंपनियां का रोजमर्रा का काम’ बताकर, असली मुद्दे से बच निकलने की कोशिश की है.

उन्होंने हरीकेन हार्वी की वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम में आए फौरी उछाल को ही दोषी ठहराने की कोशिश की है. लेकिन, असली मुद्दा इस तात्कालिक बढ़ोतरी के असर का नहीं, उत्पाद शुल्क के नाम पर सरकार द्वारा की जा रही लूट का है, जिसकी वजह से आज जनता को डीजल-पेट्रोल का जितना दाम देना पड़ रहा है, उतना दाम तो उस समय भी नहीं देना पड़ रहा था जब, कच्चे तेल के दाम आज के फौरी तौर पर बढ़े हुए दाम से दोगुने से भी ज्यादा थे.

सरकार को जनता पर यह अनाप-शनाप अप्रत्यक्ष कर थोपने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. उत्पाद शुल्क में की गई अंधाधुंध बढ़ोतरियों को वापस लिया जाना चाहिए. याद रहे कि पेट्रोल और डीजल के बेतुके तरीके से बढ़े हुए दाम की मार सिर्फ इनके प्रत्यक्ष खरीदारों पर ही नहीं पड़ती है बल्कि विभिन्न स्तरों पर परिवहन से लेकर खेती की पैदावार तक के उपभोक्ताओं के रूप में भी आम जनता पर पड़ती है. तेल के मामले में मोदी सरकार की खुशनसीबी को जनता की बदनसीबी क्यों बनाया जा रहा है?

राजेंद्र शर्मा
लेखक, राष्ट्रीय सहारा


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