मुद्दा : हिसाब देना पड़ेगा अब

Last Updated 15 Sep 2017 05:48:38 AM IST

दो चुनाव के बीच देश के नेताओं की संपत्ति में 500 प्रतिशत से भी अधिक की बढ़ोत्तरी से सर्वोच्च न्यायालय का चिंतित और असहज होकर सरकार को डांट-डपट लगाना उचित ही है.


हिसाब देना पड़ेगा अब

कारण कि वह ऐसे नेताओं के विरुद्ध कार्रवाई के बजाए हाथ-पर-हाथ धरे बैठी है और बार-बार ताकीद किए जाने के बावजूद उनका ब्योरा अदालत के समक्ष उपलब्ध नहीं करा रही है.
अदालत ने सरकार के दोहरे मानदंड पर नाराजगी जताते हुए यह भी कहा है कि एक तरफ तो वह कह रही है कि चुनाव सुधार की समर्थक है, वहीं इस मसले पर ठोस कदम उठाने से बच रही है.

सर्वोच्च अदालत ने यह सख्त टिप्पणी चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाखिल करने के दौरान उम्मीदवारों द्वारा आय का स्रोत खुलासा करने की मांग करने वाली याचिका पर की है. उल्लेखनीय है कि एक एनजीओ लोकप्रहरी ने इस संबंध में सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर कर कहा है कि नामांकन के समय उम्मीदवार अपनी संपत्ति का ब्योरा तो देते हैं, लेकिन वे यह नहीं बताते कि उनकी आमदनी का स्रोत क्या है. किसी से छिपा नहीं है कि देश में ऐसे हजारों नेता हैं, जिनके पास हजारों करोड़ की संपत्ति है. लेकिन उनकी संपत्ति का असल स्रोत क्या है, इसे बताने को तैयार नहीं हैं.

ध्यान देना होगा कि इनमें से कई नेताओं पर अदालत में आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज है और वे अदालत का चक्कर काट रहे हैं और कई जेल भी जा चुके हैं. सर्वोच्च अदालत इस बात से हैरान है कि जब सरकार चुनाव सुधार के लिए फिक्रमंद है तो फिर वह ऐसे नेताओं के विरुद्ध कार्रवाई से क्यों बच रही है?

सरकार के रवैये पर शीर्ष अदालत की यह सख्त टिप्पणी इसलिए भी वाजिब है कि इसी असामान्य कमाई के बूते राजनेता चुनाव में सीमा से अधिक धन खर्च कर चुनाव को प्रभावित कर रहे हैं. जबकि चुनाव आयोग किसी भी उम्मीदवार को निर्धारित सीमा से अधिक खर्च करने का अधिकार नहीं देता है.

जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 (1) में स्पष्ट उल्लेख है कि सभी उम्मीदवारों के लिए चुनाव खर्च का हिसाब रखना अनिवार्य है और धारा 77 (3) के मुताबिक खर्च निर्धारित राशि से अधिक नहीं होनी चाहिए. 1975 में सर्वोच्च न्यायालय ने लोक सभा सदस्य अमरनाथ चावला की सदस्यता इस आधार पर समाप्त कर दी थी कि उन्होंने निर्धारित सीमा से अधिक खर्च किया था. इस केस में अदालत ने यह भी व्यवस्था दी की अत्यधिक संसाधन की उपलब्धता किसी उम्मीदवार को दूसरों के मुकाबले अनुचित लाभ प्रदान करती है.

चुनाव आयोग इस खेल से अपरिचित नहीं है. वह हर चुनाव में सैकड़ों करोड़ रुपये जब्त करता है. लेकिन हैरान करने वाला तथ्य यह है कि नेता इस दिशा में ठोस कदम उठाने के बजाए यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं. गौर करें तो चुनाव सुधार में अडं़गेबाजी की यह फितरत कोई नई नहीं है.

1975 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध तत्कालीन इंदिरा गांधी की सरकार ने जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 77 में संशोधन कर यह व्यवस्था दी कि उम्मीदवारों के सहयोगियों और शुभचिंतकों के खर्च को उम्मीदवार के खर्च से अलग माना जाएगा. फिर सर्वोच्च अदालत ने 1994 में वाई के गडक बनाम बालासेह विखे पाटिल मामले में इस व्यवस्था को खत्म करने पर जोर दिया जो धनबल के इस्तेमाल को उचित ठहराती है.

साथ ही उसने गंजन बापट मामले में राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त एवं खर्च की गई राशि का सही हिसाब रखने व नियम बनाने का सलाह दिया. जानना यह भी जरूरी है कि 1996 में कॉमन लॉज मामले में सर्वोच्च अदालत ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 की व्याख्या कंपनी अधिनियम 1956 के आलोक में की. इस अधिनियम की धारा 293-अ के अंतर्गत इस पर कर में छूट है. लेकिन ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो राजनीतिक दलों को सही खाता रखने को मजबूर करे.

1998 में तत्कालीन गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता के नेतृत्ववाली संसदीय समिति ने राज्य पोषित कोष से चुनाव खर्च वहन करने की सिफारिश की थी. लेकिन सियासी जमात उस पर विमर्श को तैयार नहीं है.
कुछ दल तो इस तरह के सुझाव को सिरे से खारिज कर उससे उत्पन होने वाली समस्याओं को प्रेत की भांति खड़ा कर रहे हैं. दरअसल, उनकी मंशा और नीयत में खोट है. वे नहीं चाहते हैं कि चुनाव में सुधार हो. यही वजह है कि वे अज्ञात स्रोतों का खुलासा करने से बच रहे हैं और बेनामी चंदे के स्रोत को बताने को तैयार नहीं हैं.

रीता सिंह
लेखिका, राष्ट्रीय सहारा


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