परत-दर-परत : स्त्री क्या चाहती है?
सिग्मंड फ्रायड की यह उक्ति बहुत मशहूर है : ‘एक बहुत बड़ा सवाल, जिसका उत्तर अभी तक नहीं दिया गया है और स्त्रियों की आत्मा पर अपने तीस वर्षो के शोध के बावजूद जिसका उत्तर मैं नहीं दे पाया हूं, वह है ‘स्त्री क्या चाहती है.’
स्त्री क्या चाहती है? |
फ्रायड के इस कथन को अरनेस्ट जोंस ने अपनी पुस्तक ‘सिग्मंड फ्रायड : लाइफ एंड वर्क’ में उद्धृत किया है. जोंस के अनुसार, फ्रायड ने मेरी बोनापार्ट से बात करते समय यह ऐतिहासिक महत्त्व का वाक्य कहा था. राजकुमारी मेरी बोनापार्ट नेपोलियन बोनापार्ट के परिवार की थीं.
वे अपने समय की नामी फ्रेंच लेखक एवं मनोविश्लेषक थीं. सिग्मंड फ्रायड उन कुछ लोगों में से हैं, जिन्होंने आधुनिक चिंतन की नींव डाली है. लेकिन प्राचीन महाकाव्य महाभारत में भी इससे मिलती-जुलती एक उक्ति मिलती है, ‘नृपस्य चित्तं कृपणस्य वित्तं, त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम्, देवो न जानाति कुतो मनुष्यम्.’ अर्थात राजा का चित्त, कंजूस का धन, स्त्री का चरित्र और पुरुष का भाग्य, इन चार को देवता भी नहीं जानते, मनुष्य की क्या बिसात!
महाभारत के रचयिता वेदव्यास कोई साधारण लेखक नहीं थे. उन्होंने सैकड़ों चरित्र रचे थे. दूसरी ओर, फ्रायड ने मनोविश्लेषण के अपने पेशे में दर्जनों स्त्रियों का उपचार किया था. उपचार के दौरान उनके मन का गहन मंथन किया था. क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि स्त्री मन के बारे में दोनों एक जैसे निष्कर्ष तक पहुंचते हैं? नहीं.
यह आश्चर्य की बात इसलिए नहीं है कि सभ्यता की शुरुआत से ही स्त्री को बोलने का मौका और अधिकार नहीं दिया गया है. वह बत्तीस दांतों के बीच जीभ की तरह रहती है. यह उपमा तुलसीदास ने लंका में विभीषण की स्थिति बताने के लिए दी है.
रामचरितमानस में विभीषण हनुमान से अपना हाल-चाल बताते हुए कहते हैं : ‘सुनहु पवनसुत रहनि हमारी. जिमि दसनन महं जीभ बिचारी.’ पवनपुत्र, मेरे रहने के बारे में सुनो. मेरी स्थिति वैसी ही है, जैसी दांतों के बीच जीभ. इसका कारण था कि पूरी लंका में विभीषण राम का अकेला उपासक था, और जब रावण सीता का अपहरण करके ले आया, तभी से उसे वह समझाता रहा था कि वह सीता को ससम्मान लौटा कर माफी मांग ले. विभीषण पुरुष था, और ऐसी स्थिति में पड़ा एकमात्र पुरुष था, इसलिए उसके एकाकीपन और असहाय स्थिति का चितण्रतो हुआ, पर स्त्रियां कई हजार वर्षो से इससे ज्यादा बुरी स्थिति में रही हैं, और आधुनिक-पूर्व शिष्ट साहित्य में उनकी यंतण्रा की कोई खास चर्चा नहीं मिलती. स्त्री की पराधीनता में पुरुष वर्ग का सामूहिक स्वार्थ रहा है.
पराधीन व्यक्ति अपने अस्तित्व की रक्षा और अपने घावों को सहलाने के लिए तरह-तरह की युक्तियों का आविष्कार कर लेता है : झूठ बोल सकता है, छल कर सकता है, गोपनीयता बरत सकता है, अपनी कल्पनाओं और संभावनाओं की अलग स्वायत्त दुनिया बना सकता है. जीवन किसी का भी स्थगित नहीं होता : गुलाम का भी नहीं. जब सहज जीवन जीने में बाधा पैदा की जाती है, तब जटिलता का जन्म होता है, तरह-तरह के पेच सामने आते हैं. माना जाता है कि स्त्री के चरित्र में मुख्यत: इसी वजह से रहस्यमयता पैदा होती है.
वह बोले भी तो क्या बोले. उसके बोलने की अहमियत ही कितनी है? सच तो यह है कि वह स्वयं नहीं जानती कि किस परिस्थिति में वह क्या बोलेगी या क्या करेगी. यही शास्त्रीय भाषा में त्रिया चरित्र है. अंग्रेजी की कहावत है कि प्रेम और युद्ध में सब जायज है. जिसने भी यह कहावत रची है, उसने बहुत सूझ-बूझ का परिचय दिया है : पुरुष का प्रेम एक युद्ध ही तो रहा है, जिसे जीतने के बाद वह स्त्री की देह और आत्मा, दोनों पर अपना असीमित अधिकार मान लेता है. पराधीन स्त्री ने इसके खिलाफ अपनी सूक्ष्म रणनीति बनाई है, तो इसमें अस्वाभाविक और गलत क्या है?
यही कारण है कि शिष्ट साहित्य में स्त्री के अंतर्मन की अभिव्यक्ति नहीं के बराबर है. वह कहीं नहीं बोलती, उसकी ओर से पुरुष बोलता है. और पुरुष वही बोलता है, जो वह चाहता है कि स्त्री बोले. बेशक, स्त्रियों की अपनी वाणी भी बीच-बीच में सुनाई पड़ती रही है, लेकिन उस पर पुरुषवादी संस्कृति की गहरी छाया है. पर सच को कौन पछाड़ सकता है! यही वजह है कि पुरुषों द्वारा रचित साहित्य में भी स्त्री का दर्द प्रगट हुआ है, और स्त्री के पुरुषवादी साहित्य में भी स्त्री के दुख को सुना जा सकता है. यही साहित्य की सब से बड़ी ताकत है.
स्त्री की वाणी सहज और निष्कपट रूप से सिर्फ एक जगह सुनी जा सकती है, और वह है लोक साहित्य. इसके माध्यम से ही उन्होंने अपने सुख-दुख को व्यक्त किया है. इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जिसे शिष्ट साहित्य कहा जाता है, वह पूरी तरह शिष्ट नहीं है. मनुष्य एक विखंडित समाज में जीता रहा है, और ऐसे समाज की अभिव्यक्ति एक कैसे हो सकती है? आज लोक साहित्य नहीं है, आधुनिक साहित्य है, और आधुनिकता के विकास में स्त्री का योगदान कम नहीं है. स्त्री की प्रामाणिक वाणी साहित्य की मुख्यधारा का अंग तभी बन पाई, जब स्त्री ने अपनी कलम से अपनी स्थिति का विश्लेषण करना शुरू किया. इसी धमाके को स्त्रीवाद कहते हैं.
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