प्रसंगवश : शिक्षक होने का अर्थ

Last Updated 03 Sep 2017 05:22:53 AM IST

देश के प्रमुख राष्ट्रीय आयोजनों में ‘शिक्षक दिवस’ शामिल है. उच्चकोटि के दार्शनिक, राजपुरुष और शिक्षक रहे डॉ. राधाकृष्णन की याद के बहाने इस दिन सरकारी तौर पर अध्यापन के व्यवसाय को आदर मुहैया करने का कृत्य पूरा किया जाता है.


प्रसंगवश : शिक्षक होने का अर्थ

शिक्षक की महिमा भारत में प्राचीन काल से ही गाई जाती रही है, और उसकी उपलब्धि अक्सर शिष्यों की श्रेष्ठता से आंकी जाती है. श्रीकृष्ण-संदीपन, श्रीराम-वशिष्ठ, सम्राट चंद्रगुप्त-चाणक्य और महात्मा गांधी-गोखले की शिष्य-गुरु की जोड़ियां लोक-प्रसिद्ध हैं. ये सभी  युगांतर के कर्णधार बने. वस्तुत: अध्यापक की भूमिका समावेशी हुआ करती थी, जिसमें ज्ञान देने के साथ-साथ माता-पिता की भूमिका भी शामिल थी.

भारतीय परंपरा में अध्यापक का छात्र के प्रति दायित्व और समाज का अध्यापक के प्रति दायित्व एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए थे. समाज में गुरु की साख थी, रसूख था, और प्रतिष्ठा वाला ऊंचा और बड़ा प्रामाणिक स्थान था. गुरु  की आज्ञा सबसे बड़ी थी (गुरोराज्ञा गरीयसी). गुरु अपने शिष्य के सर्वागीण विकास के लिए यत्नशील रहते थे. अध्यापकों की कीर्ति उनके आचरण से अर्जित होती थी.

युग बदला और शिक्षा के व्यवसाय में रूपांतरित होने और विद्यालय की  औपचारिक संस्था के रूप में ढलने के साथ ज्ञान की यात्रा और उसके सहयात्री अध्यापक और छात्र के बीच का रिश्ता बदले परिप्रेक्ष्य में नया अर्थ पाने लगा. शिक्षा के किरदारों के समीकरण बदलने लगे. शिक्षा का संचालन जब व्यापार-व्यवसाय की तर्ज पर शुरू हुआ तो परिस्थितियां विकट से विकटतर होती गई और संस्था का रूप पाते हुए विद्यालय की प्रक्रिया जटिल होती गई. पैसे वाले लोग आज जिस तरह से शिक्षा के संस्थान खोल रहे हैं, उससे साबित है कि यह भारी कमाई करने का अच्छा साधन है. 

अध्यापन-व्यवसाय की गरिमा तब से कम होने लगी जब से योग्यता, क्षमता और कौशल आदि को आर्थिक संपन्नता से जोड़ दिया गया और आम जिंदगी में हर चीज रुपये-पैसे से जुड़ने लगी. ऐसे माहौल में अध्यापकी का व्यवसायों की सूची में स्थान शीर्ष से खिसक कर नीचे गिरने लगा. परंतु शिक्षा के लिए अनिवार्य होने के कारण अध्यापक चाहिए थे और इसी के साथ अध्यापन के साथ हर तरह के समझौतों का सिलसिला भी शुरू हो गया.

योग्य लोगों की रुचि शिक्षण-व्यवसाय में धीरे-धीरे कम होने लगी किंतु शिक्षा-संस्थाओं की बढ़ती संख्या के साथ प्रशिक्षित अध्यापकों की बड़ी संख्या की जरूरत पड़ी. इस कमी को पूरा करने के लिए शिक्षक-प्रशिक्षण के संस्थान धड़ाधड़ खुलने लगे. यह भी धंधा बन गया. इन सब के बीच शिक्षा के लिए  सरकारी बजट में लगातार कटौती होने लगी. 

उस पर अपने इर्द-गिर्द दूसरों को आर्थिक संपन्नता की दृष्टि से आगे बढ़ने के नित नये मुकाम हासिल करते देख आज अध्यापकगण यदि ईष्र्या भाव से ग्रस्त और दुखी होते हैं, तो यह अस्वाभाविक ही था. समाज और सरकार द्वारा अपने प्रति हो रहे बर्ताव को ले कर कई अध्यापक यही समझते हैं कि अध्यापकी करना किसी तरह का दंड है, या पूर्व जन्म का अभिशाप. सामान्यत: उनका अच्छे ढंग से कार्य के लिए उत्साह कम हो जाता है, और वे काम के बदले काम न करने के (उचित!) बहाने ढूंढ़ते रहते हैं. ऐसे में उनकी कार्य करने की प्रेरणा घटने लगी और वे आंतरिक प्रेरणा की जगह आर्थिक संपन्नता का कोई और अतिरिक्त तरीका ढूंढ़ने लगे. टय़ूशन करना, कोचिंग करना और पैसे के लिए अन्य गलत तरीकों का उपयोग अब आम बात हो गई है.

अध्यापक और शिष्य का रिश्ता अब संशयग्रस्त होता जा रहा है. ज्ञान के ज्यादातर केंद्रों में उदासी छाई है. ज्ञान के पुरोधा और साधक कहलाने वाले तटस्थ  बने  हुए हैं. अवसर के हिसाब से वे अपना समय शिक्षणोतर कार्यों में ‘किल’ करने में लगे  रहते हैं. जहां साधन नहीं हैं, उनकी बात तो समझ में आती है पर अनेक शिक्षा संस्थानों में ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है, जो साधन और धन होने पर भी ज्ञानार्जन और उसके विस्तार के कार्य से निर्लिप्त हो विरत रहते हैं, और उसके लिए व्यवस्था की यांत्रिकता अवसर भी दे देती है.

समाज में अध्यापक की गिरती छवि के लिए आंतरिक और बाह्य दोनों तरह के कारण जिम्मेदार हैं. शिक्षक वर्ग के लिए दायित्व और कार्य की नैतिकता के सवाल इसी संदर्भ में उठ रहे हैं. ज्ञान का निर्माण किस तरह प्रभावी और उत्पादक ढंग से सामाजिक संदर्भ से जोड़ा जाए, यह इक्कीसवीं सदी के भारत के लिए विशेष महत्त्व का हो चला है, जहां की अधिकांश जनसंख्या युवा है.

गिरीश्वर मिश्र
लेखक


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