मीडिया : महानगर और उदास लड़की

Last Updated 03 Sep 2017 05:29:35 AM IST

एक लड़की डरी-डरी सी; शायद मुंबई के स्टेशन से निकल कर सड़क पर आती है, और सड़क के ट्रैफिक को देख कर घबरा जाती है.


मीडिया : महानगर और उदास लड़की

बड़ी मुश्किल से  सड़क पार कर पाती है, और उस मल्टी स्टोरीड तक पहुंच पाती है, जिसमें उसे एक फ्लैट मिला है, जिसमें उसे रहना है. वह मकान में जाती है, और बड़े शीशे के पार देखती है, तो उसे शहर की विराटता नजर आती है. वह अपना सामान रखकर अपने घरवालों को सेल्फी भेजती है, जिसमें वह ‘उदास’ नजर आती है.

उसकी बहन कंप्यूटर के कलर बॉक्स के जरिए उसके होठों को लाल रंग से कुछ इस तरह भरती है कि लगे कि लिपस्टिक लगाई है और कि वह खुश है. यहीं पता चलता है कि वह एक कंपनी में सीईओ नियुक्त हुई है. शायद कंपनी ने ही फ्लैट दिया है. एक बड़ी कंप्यूटर कंपनी के नये ‘लैपटॉप’ के लांच के इस ‘विज्ञापन’ की कहानी की यह नायिका शुरू से ही डरी-सहमी और उदास-सी दिखती है. किसी कस्बे से आई वह इस महानगर में स्वयं को असुरक्षित और अजनबी महसूस करती है.

उसके सीईओ बनने से उसके माता-पिता और बहन आदि सब खुश हैं, लेकिन वह खुश नहीं है. इसीलिए उसे खुश ‘बनाना’ पड़ता है. खुश बनाने में मददगार है एक नया ‘लैपटॉप’ जिसमें ऐसी रंग व्यवस्था है कि आप चाहें तो किसी के भी चित्र में रंग भर सकते हैं, उसे हंसता या रोता दिखा सकते हैं. फिर उसे वापस भेज सकते हैं. यह एक तरह की ‘मार्फिग’ कला है, चित्र को बदलना है.

यह लड़की सीईओ है. बड़ी तनख्वाह पर आई है. फ्लैट की सुविधा है. अकेली है, लेकिन जितनी देर विज्ञापन में रहती है, उतनी देर डरी-सहमी नजर आती है. शायद वह शहर की भागमभाग से, सड़क के ट्रैफिक और उसके अजनबी होने के कारण डरी हुई है. एक सहमापन और एक डर उसके चेहरे पर कढ़ा रहता है.

चेहरे के इस सहमेपन को न तो महानगर बदलता है, न उसका कोई दोस्त बदलता है, बल्कि एक ‘लैपटॉप’ बदलता है. विज्ञापन का संदेश यह है कि एक लैपटॉप आपके उदास चेहरे पर मुस्कान ला सकता है. यह सचमुच की खुशी नहीं है, बल्कि डर के ऊपर चिपकाई गई खुशी है. इसे एक लैपटॉप चिपका सकता है. आप उसे खरीद सकते हैं, और उदासी या डर या असुरक्षा के भाव की जगह खुशी का भाव चिपका सकते हैं. यह विज्ञापन हमारे देखे शायद पहला विज्ञापन है, जो महानगर को किसी कामकाजी युवती की नजर से देखता है.

ऐसी युवती जो छोटे शहर से आई है, और जो इस बड़े शहर की कल्पित छवि से घबराई नजर आती है. महानगर की यह एकदम नई प्रस्तुति है, जो किसी कस्बे से निकली एक महानगर के नये किस्म के डरावने अजनबीपन को एक युवती की नजर से देखती है. यह ‘अजनबीपन’ उस तरह का अजनबीपन नहीं है, जो पचास-साठ के दशक में फिल्म ‘श्री चार सौ बीस’ के राजू के डरे-सहमे चकित हुए चरित्र से व्यक्त होता था, और जो ‘माया’ फिल्म के एक स्त्री चरित्र के चक्कर में आकर बड़ी मुश्किल से बाहर निकलता है, लेकिन फिर अपने ईमानदारी छाप ‘कस्बे’ में घुस जाता है.

उसके बहुत बाद आई ‘गमन’ फिल्म का युवक भी कस्बे से महानगर आता है. वह बेरोजगारी से निराश है, और इस महानगर में एक टैक्सी ड्राइवर हो जाता है. वह अपने और शहर के फ्रस्ट्रेशन को महसूस करता है, और शहरयार के लिखे गाने की इन दो लाइनों के जरिए इस महानगर की निराशा को बयान करता है :

सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है

इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है.

महानगर की तीसरी महत्त्वपूर्ण झलक आर्थिक उदारतावाद के दौर में आई फिल्म ‘बंटी और बबली’ में नजर आती है, जिसके नायक-नायिका हैं तो कस्बाई, लेकिन मुंबई उनके लिए कोई डराने वाला महानगर नहीं है, बल्कि वे तो उनकी ‘कामनाओं’ का शहर है, जहां वे अपनी ‘ठग-विद्या’ से मनचाहा पैसा बना सकते हैं.

लेकिन इस विज्ञापन का ‘महानगर’ चौथे किस्म का है. यह कॉरपोरेट का बनाया महानगर है, जिसमें आप ‘श्री चार सौ बीस’ के न ‘राजू’ बनने आए हैं, न ‘गमन’ के ‘टैक्सी ड्राइवर’ बन के आए हैं, न ‘बंटी बबली’ के ठग बनके आए हैं बल्कि जहां एक लड़की किसी कॉरपोरेट की सीईओ बनके आई है. इसीलिए हमने कहा कि यह विज्ञापन पहला है, जो किसी महागनर को एक नई एम्पार्वड औरत के नजरिए से परिभाषित करता है.

सुधीश पचौरी
लेखक


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