मुद्दा : विधवाओं को ताकतवर बनाएं

Last Updated 17 Aug 2017 01:08:34 AM IST

यूके की रिसर्च एसोसिएट सूजी सोली जब दक्षिण एशिया और अफ्रीका में विधवाओं की दशा पर अपने शोध के लिए नेपाल गई तो वहां एक दिलचस्प घटना देखने को मिली.


विधवाओं को ताकतवर बनाएं

तीज का त्योहार विवाहित औरतें मनाया करती हैं, लेकिन वहां इसी मौके पर विधवा औरतें लाल साड़ियों में लिपटीं नाच-गा रही थीं. उनके सिर पर सिंदूर था और वह आनंद मंगल कर रही थीं.
विमेन फॉर ह्यूमन राइट्स नामक संगठन ने नेपाल में विधवा औरतों के लिए इस परंपरा की शुरु आत की थी. सूजी सोली ने अपने शोध में लिखा- ऐसा रिवाज दूसरे देशों में क्यों नहीं? क्यों अफ्रीकी देशों से लेकर भारत, पाकिस्तान, सभी जगह विधवाओं को बेसहारा जीवन जीना पड़ता है?

सिंदूर और विवाह के दूसरे चिह्न किसी के लिए महत्त्वपूर्ण क्यों हैं, इस पर बहस फिर कभी. लेकिन सच तो यह है कि विधवाओं के लिए खुश होना ही अक्सर दुर्लभ हो जाता है. सामाजिक लांछन उन्हें कभी उस दुख से उबरने नहीं देते. मर्द के बिना औरत का जीवन अधूरा है, इसी पितृसत्तात्मक सोच के चलते मर्द के जाते ही औरत अधूरी मान ली जाती है. सारे तीज-त्योहार बिसर जाते हैं.

यह भी कम दिलचस्प नहीं कि हमारे देश में विधवाओं की संख्या में 2001 और 2011 के बीच तेजी से बढ़ी है. चीन के बाद भारत ऐसा दूसरा देश है, जिसमें विधवाएं इतनी बड़ी संख्या में मौजूद हैं. जनगणना के आंकड़े कहते हैं कि इस समय हमारे देश में 5.6 करोड़ औरतें ऐसी हैं, जिनके पतियों की मृत्यु हो चुकी है. यह देश की कुल जनसंख्या का 4.5 फीसद है. इनमें 0.45 फीसद 10 से 19 वर्ष के बीच की औरतें हैं, 9.0 फीसद 20 से 39 वर्ष की हैं और 32 फीसद 40 से 59 वर्ष के बीच की हैं. इसके बावजूद बाल विवाह करना हमारे यहां कानूनन अपराध है.

यहां यह जानना जरूरी है कि 2006 के बाल विवाह निषेध कानून में बाल विवाह कराने वाले तो जेल चले जाते हैं किंतु सहमति से किया गया विवाह खारिज नहीं होता. नतीजतन, बाल विधवाओं की संख्या बढ़ती जाती है. हालांकि देश में विधवाओं के प्रति चिंता जागी है. हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से कहा है कि विधवाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए उनके पुनर्विवाह को लेकर योजना तैयार की जाए. हमारे देश में ऐसी बहुत-सी विधवा महिलाएं हैं, जिन्हें उनके परिवार वाले त्याग देते हैं और वे बेसहारा जीवन काटने को मजबूर कर दी जाती हैं.

तीर्थस्थलों में ऐसी हजारों महिलाएं हैं, जो एकाकी और निराश्रित जीवन जी रही हैं. हालांकि, पिछले कई सालों में अनेक सरकारी योजनाओं के जरिए उनके पुनर्वास की कोशिशें की जा रही है, लेकिन उनका कार्यान्वयन सही तरीके से न होने के कारण हालात जस के तस हैं. सर्वोच्च न्यायालय का हाल का फैसला इसलिए स्वागतयोग्य है क्योंकि इसमें सिर्फ पुनर्वास की नहीं, विधवाओं के दोबारा विवाह करने की बात कही गई है.

न्यायालय ने सरकार से कहा है कि उसकी योजनाएं इस प्रकार तैयार की जानी चाहिए ताकि विधवाओं से जुड़े सामाजिक लांछन को दूर किया जा सके. तभी उनके दोबारा शादी करने की बात को समर्थन मिलेगा.
न्यायालय पिछले एक दशक से विधवाओं के कल्याण से संबंधित सरकारी योजना के कार्यान्वयन पर नजर रखे हुए है. इसी साल अप्रैल में वह यह कहते हुए केंद्र सरकार को फटकार लगा चुका है कि सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती. यों विधवाओं के कल्याण के लिए तैयार योजना में उन्हें कौशल सिखाना भी शामिल है.

दोबारा विवाह करना इस योजना का एक पक्ष जरूर हो सकता है लेकिन पूर्ण हिस्सा नहीं. मर्द के बिना औरत का वजूद है और इसे साबित करने के लिए औरत को सिर्फ सशक्त बनाने की जरूरत है. अपनी ताकत को समझने और उसका सदुरु पयग करने की जरूरत है. दो साल पहले वृंदावन और वाराणसी की विधवाओं ने प्रधानमंत्री से उनके कल्याण के लिए संसद में विधेयक लाने का आग्रह किया था. महाराजगंज के भाजपा सांसद ने विधवाओं के संरक्षण के लिए प्राइवेट मेंबर बिल लोक सभा में पेश भी किया था लेकिन वह अभी विलंबित ही पड़ा है.

जरूरत यह है कि सरकार खुद ऐसा कोई विधेयक लेकर आए और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना से बचे. बाकी अपने यहां के रिवाज तो अनूठे हैं. इसी महीने की 4 तारीख को जयपुर से कुछ 135 किमी दूर केकरी में 40 साल की विधवा को चुड़ैल बताकर मार दिया गया. उसे प्रताड़ित करने के बाद मार डाला गया. इसी से पता चलता है कि औरतों के प्रति सिर्फ  नजरिया बदलने की जरूरत है.

माशा
लेखिका


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