मीडिया : ब्रांडों की बदतमीजियां
इनवर्टर के एक विज्ञापन के ओपिनिंग सीन में एक लड़की आते ही अपने पिता को फटकारते हुए कहती है: पापा आपका इनवर्टर तीन घंटे भी नहीं चला.
![]() मीडिया : ब्रांडों की बदतमीजियां (file photo) |
पिता अपना-सा मुंह ले के रह जाता है. जाहिर है विज्ञापन किसी ऐसे इनवर्टर को खरीदने की सलाह दे रहा है जो अधिक देर तक चले ताकि किसी बेटी या बेटे को अपने पिता को फटकारना न पड़े. इसी सीन को कुछ और खोलें: पिता ऐसी जगह रहता है जहां बिजली चली जाती है और तीन घंटे से ज्यादा देर तक अवश्य जाती है. ऐसा मुहल्ला दिल्ली में भी हो सकता है और कस्बे और गांव तो पूरे के पूरे ही ऐसे हो सकते हैं, जहां बिजली जाती रहती हो. बिजली जाने के बाद बैटरी से संचालित इनवर्टर्स का मारकेट अखिल भारतीय है. यह विज्ञापन उसे ही टारगेट करता है. एक विज्ञापन को हर हक है कि वो ऐसा करे. और वह करता भी है.
विज्ञापन बताता है कि यहां एक ऐसा पिता है, जो बेटी को पढ़ने के लिए यथासंभव सुविधएं देता है. बेटी जरूर कुछ ऐसा महत्त्वपूर्ण कोर्स कर रही है जिसके लिए उसे देर तक लगातार पढ़ाई करनी पड़ती है. बीच में बिजली जाने पर सिर्फ इनवर्टर का सहारा है और अगर वह भी बीच में रुक जाता है तो पढ़ाई रुक जाती है. पढ़ाई रुकने पर बेटी को गुस्सा आता है वह एक घटिया से इनवर्टर को खरीदने के लिए पिता को धिक्कारती हुई चली जाती है. यह मिडिलक्लासी घर है. जिसकी बच्ची पढ़कर कुछ होना चाहती है. पिता इतने पैसे वाला भी नहीं है कि ऐसी जगह मकान ले सकें, जहां चौबीस घंटे बिजली रहती हो.
सारी कहानी इनवर्टर के ऊपर टिकी है. वह अच्छा होता, बढ़िया क्वाइलिटी का होता तो न बेटी की पढ़ाई डिस्टर्ब होती न पिता को बेटी की बदतमीजी सहनी पड़ती. लेकिन विज्ञापन में बेटी को बदतमीज बनाना क्या जरूरी था? वह ऐसी बिटिया भी तो हो सकती थी, जो इनवर्टर के बीच में बंद हो जाने पर अपनी परेशानी को कुछ शिष्टता के साथ व्यक्त करती.
लेकिन तब मारकेटिंग कैसे होती? घटिया इनवर्टर को धिक्कार कर ही ‘बढ़िया’ बेचा जा सकता है. यहां घटिया इनवर्टर एक बेवकूफ पिता का पर्याय बन जाता है, जो बेटी से डांट खाता है.
विज्ञापन बनाने वालों से पूछें तो वे यही जबाव देंगे कि आजकल ‘बदतमीजी’ मारकेट में कंज्यूमर का ही ध्यान खींचती है. शराफत का बाजार तो कबका उजड़ चुका. अब सिर्फ बदतमीजी का ही बाजार है. अगर लड़की ऐसी बदतमीजी न करे तो कौन ध्यान दे कि इनवर्टर में गड़बड़ है और नया चाहिए.
टीवी के हर विज्ञापन के दो पहलू होते हैं. पहला, किसी ‘ब्रांड’ की मारकेटिंग और पोजीशनिंग करना, दूसरा विज्ञापन की कहानी का सांस्कृतिक असर. उदाहरण के लिए एक बार जब ‘थम्स अप’ रिलौंच हुआ तो एक फिल्मी हीरो ‘थम्स अप’ के लिए बंगी जंपिग करता दिखता था. एक बच्चा उसकी जंपिग से इतना प्रभावित हुआ कि बिना किसी को बताए खुद बंगी जंपिग कर बैठा और मर गया. ‘थम्स अप’ खरीदना ‘ब्रांड’ का असर था, लेकिन जंपिग की नकल करना विज्ञापन की कहानी का वह असर था, जिसकी वजह से भोले बच्चे को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
इनवर्टर वाली कहानी भी एक स्तर पर नए इनवर्टर को बेचती है, लेकिन साथ ही बदतमीजी भी बेचती है : नया इनवर्टर मंहगा होगा. एक दिन वह भी खराब होगा ही और इस तरह एक बार फिर किसी पापा को किसी बेटी को डांट पड़ेगी. इनवर्टर बिकता रहेगा. खराब होता रहेगा. लेकिन डांट लगाना तब तक बेटी-बेटे के मिजाज का हिस्सा बन जाएगा ना. ब्रांड के साथ बदतमीजी फ्री में मिलेगी.
जरा-सी असुविधा होने पर अपने वृद्ध पापा को झिड़कना बहुत से बच्चों का नया व्यवहार है, जो इन दिनों खासा कॉमन है. तकनीक और मोबाइल की दुनिया के मारे नए बच्चे अक्सर अपने माता-पिता को मूर्ख समझते हैं, पिछड़ा समझते हैं, दयनीय समझते हैं. उनमें धीरज की कमी है. अच्छा इनवर्टर लाना, चौबीस घंटे बिजली वाली जगह रहना महंगा है. आप अगर एफोर्ड नहीं कर सकते तो एक बेटी से डांट खाते रहिए या उसे डांटते रहिए.
इस तरह हर विज्ञापन आपको हीन बनाता हुआ आपके साथ कुछ न कुछ बदतमीजी करता रहता है और आप उसी चीज को खरीदते हैं जो आपको नीचा दिखाने का कारण बनी. जाहिर है कि हम ब्रांडों की बदतमीजियों के समय में जीते हैं.
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