पृथ्वी दिवस : पृथ्वी को बचाने की चिंता
प्रत्येक वर्ष बाइस अप्रैल को विश्व भर में पृथ्वी दिवस मनाया जाता है.
पृथ्वी दिवस : पृथ्वी को बचाने की चिंता |
भारत में इस दिन को व्यापक रूप दिया जाना जरूरी है ताकि पर्यावरण का मुद्दा हमारी सोच में केंद्रीय स्थान ग्रहण कर सके. पहले पहल विस्कांसिन के सिने. गेलॉर्ड नेल्सन के मन में पृथ्वी दिवस मनाए जाने का विचार आया था. प्रथम पृथ्वी दिवस 1970 में मनाया गया. दरअसल, 1969 में सांता बार्बरा, कैलिफोर्निया में बड़े पैमाने पर तेल फैल गया था जिससे काफी क्षति हुई थी. आपदा से व्यथित नेल्सन के दिमाग में कौंधा कि क्यों न लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने की गरज से राष्ट्रीय स्तर पर ‘टीच-इन’ कार्यक्रम का आयोजन किया जाए.
भारतीय नागरिकों, अकादमिशियनों और नीति-निर्माताओं को इस दिन का उपयोग वैश्विक तथा राष्ट्रीय स्तर पर हासिल की जा चुकी उपलब्धियों और उनके सबक से सीख लेने के लिए करना चाहिए. पृथ्वी के भावी परिदृश्य और पृथ्वी पर जीवन को लेकर 1962 में प्रकाशित पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंग’ में उपयोगी खाका खींचा गया है. पुस्तक रचेल र्कासन ने लिखी है. 1968 में गैरेट हार्डिन का एक शोध पत्र भी प्रकाशित हुआ था. ‘द ट्रेजिडी ऑफ द कॉमन्स’ नाम से प्रकाशित शोध पत्र में जनसंख्या संबंधी समस्याओं और संसाधनों के संयमित उपयोग और पर्यावरण प्रदूषण पर फोकस किया गया था. अंतरराष्ट्रीय स्वैच्छिक संगठन ‘द क्लब ऑफ रोम’ की स्थापना 1967 में की गई. इस संगठन ने स्वयं को इस वैश्विक समस्या के समाधान के अध्ययन के लिए समर्पित कर दिया. समस्या का समाधान खोजते में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बहुपक्षीय पहलुओं के साथ दीर्घकालिक परिदृश्य पर तवज्जो दी गई. 1972 में मैसाच्यूट्स इंस्टीटय़ूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के शोधार्थियों ने ‘विकास की सीमाएं’ नाम से एक मॉडल प्रस्तुत किया.
क्लब ऑफ रोम के तहत इसका प्रकाशन हुआ जिसमें आर्थिक एवं जनसांख्यिकीय वृद्धि की पारिस्थतिकीय सीमाओं की व्याख्या की गई थी. शोधार्थियों ने पांच प्रमुख रुझानों के आधार पर गणितीय पड़ताल करने के पश्चात 2100 तक के लिए पर्यावरणीय आकलन किया था. ये पांच पहलू थे : विश्व स्तर पर बढ़ता औद्योगिकीकरण, विश्व में तेजी से बढ़ती जनसंख्या, गरीबी के कारण से व्यापक रूप से फैली कुपोषण की समस्या, क्षयशील संसाधनों पर निर्भरता और उनके त्वरित क्षरण तथा बिगड़ता पर्यावरण. 1972 में स्टॉकहोम, स्वीडन में संपन्न ‘द यूनाइटेड नेशंस कांफ्रेंस ऑन द ह्यूमन एन्वायरमेंट’ में पहले पहल वैश्विक स्तर की पर्यावरणीय चिंताओं में पारिस्थितिकीय मुद्दों को भी शामिल कर लिया गया. कांफ्रेंस इस घोषणा के साथ संपन्न हुई कि प्रदूषण का मुकाबला करने के लिए किन सिद्धांतों और कार्रवाई योजना को अपनाया जाएगा. 1984 में यूनाइटेड नेशंस सभा ने हरलेम ब्रंड्टलैंड को विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग के गठन की दिशा में बढ़ने के लिए अधिकृत किया. आयोग को दायित्व सौंपा जाना था कि वैश्विक समुदाय को पर्यावरण संरक्षण संबंधी सिफारिशें करेगा.
आयोग से अपेक्षा थी कि पर्यावरण संरक्षण के लिए विकासशील देशों और विकसित देशों के बीच परस्पर सहयोग को बढ़ावा देगा. लोगों, उनकी समृद्धि और ग्रह संबंधी कार्रवाई योजनाओं को 2015 में स्वीकार किया गया ताकि 2030 तक सतत विकास के लिए एजेंडा की दिशा में तत्पर हुआ जा सके. सतत विकास के लिए सत्रह लक्ष्य नियत किए गए. कुछ लक्ष्य हैं : गरीबी उन्मूलन, वैश्विक स्तर पर सामूहिक भागीदारी के जरिए शांति की स्थापना, पर्यावरण-हितैषी विकास को प्रोत्साहन, सामाजिक समावेशन तथा पर्यावरणीय टिकाऊपन. सूचना प्रौद्योगिकी से न केवल पृथ्वी के संसाधनों संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हो रही हैं, बल्कि यह इन सूचनाओं के समेकित, समावेशी और सतत उपयोग में भी यह प्रौद्योगिकी सहायक है. भारत विसनीय भौगोलिक विविधताओं और बहुलतावादी समाज वाला तथा बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक और बहुजातीय देश है. विश्व में दूसरा सबसे ज्यादा मानवीय संसाधानों वाला देश है, जहां की जनसंख्या 1210 मिलियन (2011) है. यह विश्व की जनसंख्या का 17 प्रतिशत है. भारत विश्व का चौथा सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है.
जलवायु पर्वितन पर पेरिस समझौते ने इसकी पुष्टि की है. गांधी जयंती, जो विश्व अहिंसा दिवस भी है, के अवसर पर 2 अक्टूबर, 2016 को जलवायु पर्वितन संबंधी इस समझौते से सहमति जताने वाला वह 62वां राष्ट्र बना. पेरिस समझौते में सदस्य देशों के लिए लाजिम किया गया है कि वे कार्बन उत्सर्जन को कम रखने पर प्रतिबद्धता जताएंगे ताकि वैश्विक औसत तापमान को 1.5 डिग्री से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जा सके. आने वाले वर्षो में भारत अपने उपलब्ध स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के उपयोग से आर्थिक विकास के टिकाऊ मॉडल के लक्ष्य को लेकर प्रयासरत रहेगा. भावी पृथ्वी की अवधारणा एक नई दस वर्षीय अंतरराष्ट्रीय शोध संबंधी पहल है जिससे वैश्विक पर्यावरणीय परिवर्तन और इससे जुड़े जोखिमों के प्रति प्रभावी समझ विकसित हो सकेगी. साथ ही, आने वाले दशकों में वैश्विक सतत परिवर्तन को समर्थन भी दिया जा सकेगा. भावी पृथ्वी के इस लक्ष्य में जहां हजारों वैज्ञानिक को साथ जोड़ा जा सकेगा वहीं नीति-निर्माताओं और अन्य पक्षों से रियो प्लस 20 के आलोक में सहयोग लिया जा सकेगा. भारतीय नीति के कारगर रहने के लिए जरूरी है कि समाधानोन्मुख नीति अपनाई जाए.
प्रभावी अंतरविषयक सहयोग को बढ़ावा दिया जाए. जनता और नीति-निर्माताओं तक समयबद्ध सूचना पहुंचाने पर बल दिया जाए. जनता से जुड़े कार्यक्रम में सरकार की भागीदारी सुनिश्चित की जाए ताकि नीति-निर्माता, धन मुहैया कराने वाले, अकादमिक जन, कारोबारी तथा उद्योग के साथ ही नागरिक समाज के अन्य क्षेत्रों से शोध एजेंडा को मिलकर तैयार करने और उसे कार्यान्वित करने में सहायता मिल सके. युवा, महिलाओं, हुनरमंदों, अक्षम और सामाजिक रूप से वंचित समूहों की क्षमता में इजाफा करने की ओर पर भी तत्परता दिखे. इस प्रकार पृथ्वी दिवस भारत में सामाजिक तौर पर समावेशी विकास, पारिस्थितिकीय रूप से स्वस्थ और तकनीकी रूप से दक्ष और आर्थिक रूप से वांछित विकास का लक्ष्य हासिल हो सकेगा.
(लेखक प्रख्यात भूगोलविद् हैं)
| Tweet |