बाबरी केस : फैसले के मायने

Last Updated 21 Apr 2017 06:22:37 AM IST

लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और सैकड़ों अनामित ‘कार सेवकों’ के खिलाफ आपराधिक मुकदमे फिर से शुरू करने के सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से जो लोग प्रसन्न और उत्साहित हैं,


बाबरी केस : फैसले के मायने

वे वित्त मंत्री अरुण जेटली की इस घोषणा से सन्न रह गए होंगे कि उमा जी को मंत्रिमंडल से निकाल बाहर करने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि यह मामला 1993 से चल रहा है और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कोई नई स्थिति नहीं पैदा हुई है. यह स्पष्टीकरण दने के बाद अरु ण जेटली इससे भी ज्यादा कीमती बात यह कहते हैं कि अगर चार्जशीट के आधार पर किसी को हटाना ठीक है, तो कांग्रेस के बहुत कम मुख्यमंत्री टिक पाएंगे.
वित्त मंत्री का यह ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ या ‘सेंस ऑफ सटायर’ तब ज्यादा स्वीकार्य होता, जब वे यह भी कहते कि सिर्फ चार्जशीट के आधार पर किसी को मंत्री या मुख्यमंत्री बनने से रोका जा सकता है, तब हम उत्तर प्रदेश में आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री कैसे बना सकते थे? योगी पर उनसे संख्या में कहीं ज्यादा और प्रकृति में उनसे और भी ज्यादा गंभीर आरोपपत्र दाखिल हैं, जो भाजपा के दो पूर्व अध्यक्षों और मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री पर कायम हुए हैं. बाबरी मस्जिद का ध्वंस करने का मुकदमा 1933 में शुरू हुआ था और उमा भारती 22 अगस्त 2004 तक मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं. आडवाणी और जोशी तो और बाद में केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य बने. कुछ लोगों का स्व-घोषित विास है कि अरुण जेटली प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सब से विस्त व्यक्ति हैं. कुछ मर्मज्ञ तो यहां तक बताते हैं कि सरकार तो दरअसल जेटली ही चला रहे हैं.

अगर इन मौलिक कल्पनाओं में थोड़ी भी सच्चाई है तो उमा भारती के मंत्री बने रहने न बने रहने पर जेटली के इस वक्तव्य के पीछे किसी-न-किसी प्रकार की सत्ता जरूर है. तो क्या यह माना जाए कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से बाबरी मस्जिद के गिरने से विह्वल हो कर जोशी से लिपट जाने वाली साध्वी को तो बचा लिया जाएगा, क्योंकि प्रधानमंत्री और पार्टी, दोनों को उनकी जरूरत है, लेकिन पार्टी के मार्गदर्शक मंडल को मई-जून की चिलचिलाती धूप में झुलसने के लिए अकेला छोड़ दिया जाएगा. कहने की जरूरत नहीं कि वफादारियों के दिन भी बदलते रहते हैं. बैरम खां सम्राट अकबर का अभिभावक, गुरु  और सेनापति था, लेकिन बड़े होने पर अकबर ने उसके सामने दो विकल्प रखे : या तो आप रिटायर हो जाएं और महल में रहते हुए ऐश करें या हज करने के लिए मक्का चले जाएं. यह मानना अशिष्टता होगी कि इस फैसले के द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री मोदी की अप्रत्यक्ष रूप से मदद की है. सुप्रीम कोर्ट के आचरण पर इस तरह के संदेह इंदिरा गांधी के समय से ही उठते रहे हैं. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अदालतों का आचरण इस पर भी निर्भर होता है कि जज की ऊंची कुर्सी पर कौन बैठा हुआ है.
इसी सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने इमरजेंसी के दौरान यह व्यवस्था दी थी कि आपातकाल में जीवित रहने का अधिकार भी स्थगित हो जाता है और इसी सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने शाहबानो केस में एक सर्वथा न्याय फैसला सुनाया था. इसी सुप्रीम कोर्ट के जाग्रत विवेक के कारण आज हम जान पाते हैं कि चुनाव मैदान में खड़े हो रहे उम्मीदवारों की पढ़ाई-लिखाई कितनी है, उनके पास धन-धान्य कितना है और किसी के खिलाफ गंभीर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, तो उनकी प्रकृति और तादाद क्या है? इसलिए यह मानने में मुझे हिचक है कि सुप्रीम कोर्ट प्रधानमंत्री मोदी के साथ किसी राजनैतिक षड्यंत्र में लिप्त है. जो लोग इस फैसले का अर्थ यह लगा रहे हैं कि इससे आडवाणी या जोशी के राष्ट्रपति बनने का मार्ग अवरु द्ध हो गया है, उनसे विनम्र अनुरोध है कि वे अपने विश्लेषण पर पुनर्विचार करने का कष्ट करें. भारत के चाणक्य, इटली के मेकियावेली और चीन के सुन ट्जू, तीनों ने सलाह दी है कि सांप को मारने का इरादा न हो, तो उसे छेड़ना नहीं चाहिए. घायल सांप पुश्तैनी दुश्मन से भी ज्यादा खूंखार होता है. हम सभी जानते हैं कि भाजपा का एक ही मार्गदशर्क मंडल है, जिसका मुख्यालय नागपुर है. जब मोदी ने एक और मार्गदर्शक मंडल नियुक्त किया, तो यह नागपुर के मार्गदर्शक मंडल का ‘शैडो’ नहीं था, जैसा कि ब्रिटेन में होता है, न ही भाजपा की कार्यशैली में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की कोई अनोखी सूझ, बल्कि यह एक तरह का ‘गोल्डन हैंडशेक’ था. सच्चा राजनीतिज्ञ वही है, जो न माफ करे, न भूले. यह क्षेत्र संतई का नहीं है.
जिस कारण से मैं सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से प्रसन्नता जाहिर करने में असमर्थ हूं कि जब अनेक वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के सारे मामले अपने पास मंगा लिये थे और अन्य सभी अदालतों द्वारा इनमें से किसी पर भी सुनवाई करने पर रोक लगा दी थी, तब अचानक इन मुकदमों को उनके मायके भेजने में क्या तुक है? यह संतोष का विषय है कि नीचे की दोनों अदालतों में अब रोज सुनवाई होगी, स्थगन की प्रार्थनाओं पर उदारतापूर्वक विचार नहीं किया जाएगा, जैसा कि सभी अदालतों का कायदा है, और दो वर्ष में फैसला सुनाने की बाध्यता भी है, लेकिन क्या इन आदेशों में कोई सार भी है?
इन दोनों अदालतों का फैसला अनंतिम होगा और क्षुब्ध पक्ष को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का संवैधानिक अधिकार होगा. उसके बाद की स्थिति की कल्पना करने के लिए ‘ढाक के वही तीन पात’ की कहावत सर्वथा उपयुक्त मानी जानी चाहिए. क्या सुप्रीम कोर्ट इसलिए आवेग में आ गया कि दोनों पक्षों को समझौता कर समाधान निकाल लेना चाहिए, उसके इस सुझाव को एक पक्ष ने पूर्णत: अमान्य कर दिया? किस्से को और ज्यादा लंबा करने के बजाय उच्चतम न्यायालय स्वयं इन मुकदमों की सुनवाई शुरू कर देता और दो वर्ष में फैसला सुनाने का साहसिक संकल्प करता, तो देश की जनता राहत का अनुभव करती. हालांकि उसकी सुनवाई पूरी न होने तक जज की बदली न होने देने का उसका नियमन परिणामदायक होगा.

राजकिशोर
लेखक


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