प्रसंगवश : बाजार चालू आहे!

Last Updated 02 Apr 2017 02:46:49 AM IST

खरीद-फरोख्त तो निश्चय ही कोई नई बात नहीं है पर सारी दुनिया इस कदर बाजारमय हो जाएगी, इसका अंदाज जरूर नहीं था.


प्रसंगवश : बाजार चालू आहे!

आज बिना किसी शक के हम बाजार-युग में पदार्पण कर चुके हैं. अब ‘बाजारू’ कोई खराब विशेषण नहीं रहा क्योंकि आज जो भी है, वह बाजार की हद में आ चुका है, और जो नहीं आया है, वह जल्दी ही आने वाला है. बाजार ही इस युग का ईश्वर हुआ जा रहा है.

सच कहें तो विकास के नाम पर समाज में बाजार की केंद्रीय होती जा रही उपस्थिति हमारे जीवन में एक पूरा युगांतर या ‘पैराडाइम शिफ्ट’ पैदा करने वाली घटना सिद्ध हो रही है. बाजार की दुनिया में रहने वाला आदमी बदल गया है. उसका ईमान, धर्म, उसकी वरीयताएं और कार्यकलाप भी बदल रहे हैं. हर चीज रुपये पैसे में तब्दील की जा सकने वाली वस्तु का रूप लेती जा रही है. मानवता या इंसानियत जैसे शब्द बाजार की भाषा और उसके मुहावरे में फिट ही नहीं होते. उसमें तो रेट, मार्जिन, प्रॉफिट और कमीशन जैसे शब्द ही प्रमुख हैं. बाजार की इस दौड़ में हर कोई एक दूसरे को किसी भी तरह से मात देने के लिए स्वतंत्र और सन्न्द्ध है. पिछले सालों में जिस तरह से आर्थिक घोटालों की बाढ़ आई वह आंशिक रूप से बाजारीकरण की फलश्रुति का ही नमूना है. वैीकरण के दौर में इसके आयाम आगे चल कर निश्चय ही और भी जटिल होंगे.

बाजार निश्चय ही आज की सबसे प्रचंड सामाजिक संस्था बन गया है. बाजार हमारी सोच को बदल रहा है, और अब लोग यह मानने सा लगे हैं कि सब कुछ बिकाऊ है. सब चीजों की कीमत लग रही है. हवा और पानी जैसी नैसर्गिक चीजों को भी बाजार ने अपनी गिरफ्त ले रखा है यानी कुछ भी अब फ्री नहीं रहा. सब कुछ सशर्त ही मिलेगा. बाजार हमें बना-बिगाड़ रहा है, और उसके द्वारा हमारा स्वभाव एक नये ढर्रे पर भटकने के लिए तैयार किया जा रहा है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं दिखता. बाजार का लक्ष्य किसी को अच्छा मनुष्य बनाना तो कतई नहीं है. उसकी रु चि तो उपभोक्ताओं की फौज खड़ा करने में होती है, ऐसे उपभोक्ता जो खरीदी से कभी न अघाएं, कभी तृप्त न हों, बल्कि उसके लिए निरंतर व्यग्र बना रहें.

बाजार इतना चालाक है कि वह बड़ी होशियारी से यह सुनिश्चित करने की कोशिश करता है कि आदमी सदैव तृषित ललचाई नजरों से निहारता रहे और उसकी बाजार तक की दौड़ अनवरत चालू रहे. साथ ही, खरीदी को तमाम तरह के पल्रोभनों में इस तरह लपेट कर पेश किया जाता है कि उसके पीड़ादायी या नकारात्मक पक्ष खरीददार के सामने (कम से कम तुरंत तो) न ही आएं. खरीदी के लिए दुकानदार को तत्काल पैसे भी दें यह जरूरी नहीं होता. उधार देने या ऋण की व्यवस्था भी खरीदने के साथ-साथ उपलब्ध की जाती है. क्रेडिट कार्ड ने यह सुविधा और भी बढ़ा दी है. नयेपन के प्रति सहज मानवीय आकषर्ण का फायदा उठाते हुए बाजार अपने उत्पादों को बदल-बदल कर नया करता रहता है. उपभोक्ता के लिए एक रंग-बिरंगी दुनिया का सृजन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है.

आज निगाह दौड़ाने पर चारों ओर से सिर्फ एक ही आवाज आ रही है : खरीदो! और खरीदो!! खूब खरीदो!!! दो खरीदने पर एक फ्री मिलेगा. खरीदने की आवाज में सब कुछ खोता जा रहा है. मात्रा की दृष्टि से टीवी पर समाचार कम विज्ञापन ज्यादा आता है. खरीदने के विज्ञापन को हम खरीद रहे हैं. खरीदने में पिछड़ना अपनी प्रतिष्ठा के विरु द्ध होता है. बगल के घर की खरीदारी से हमें किसी हाल में कमतर साबित नहीं होना है. सो, हम जरूरती और गैर-जरूरती की बीच का भेद किये बिना खरीदे जा रहे हैं.  दूसरे को नीचा दिखाने और स्पर्धा में आगे बढ़ने के लिए हम कमर कसे रहते हैं. शॉपिंग शगल तो था, पर अब वह एक जरूरी काम हो चला है. भक्ति हो न हो शॉपिंग तो होनी ही है. खरीदी का कर्म सभ्य और संस्कृति-संपन्न होने की शर्त बनता जा रहा है. मानो जिंदगी में शॉपिंग न हुई तो कुछ भी न हुआ.

एक दूसरे को मात देने तो आतुर लोग अनाप शनाप की शॉपिंग से बाज नहीं आते. अपनी झूठी प्रतिष्ठा को बनाए-बचाए रखने के लिए औकात से ज्यादा खर्चीला होना आर्थिक रूप से भारी ही नहीं अस्वास्थ्यकर भी होता है. दुर्भाग्य है कि अपरिग्रह अर्थात जरूरत के हिसाब से चीजों को रखना अब पिछड़ेपन की निशानी बन रहा है. हम भूल रहे हैं कि फिजूलखर्ची और अनावश्यक संग्रह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर भारी पड़ेगा. संयम के अभाव में जीवन और जीवनी शक्ति दोनों का ही ह्रास होगा. आखिर, प्रकृति का भंडार भी तो सीमित ही है.

गिरीश्वर मिश्र
लेखक


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