उच्च शिक्षा की समस्याएं

Last Updated 27 Feb 2017 04:54:08 AM IST

प्रधानमंत्री का यह बयान कि तीन वर्षो पर उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में बदलाव की जरूरत है-


उच्च शिक्षा की समस्याएं

दर्शाता है कि सरकार उच्च शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए जागरूक है. पर पाठ्यक्रम उच्च शिक्षा की एक अकेली समस्या नहीं है और नहीं इसमें संशोधन भर कर देने से उच्च शिक्षा की गुणवत्ता एवं प्रसांगिकता में वृद्धि हो जाएगी. यदि भारत अपनी युवा जनसंख्या के बूते पर विश्व पटल पर प्रखरता से उभरना चाहता है तो उसे सबसे पहले उच्च शिक्षा के उत्थान एवं पोषण के लिए लगातार सजग एवं प्रयत्नशील होना होगा. विश्व के श्रेष्ठ उच्च शिक्षा संस्थानों में भारत न केवल विकसित राष्ट्रों से काफी पीछे है, बल्कि कई विकासशील राष्ट्र भी इस दृष्टि से भारत से आगे हैं. भारत के पास जनसंख्या के अनुपात में उच्च शिक्षण संस्थानों की काफी कमी है और साथ ही इनमें शिक्षकों एवं आधारभूत सुविधाओं का नितांत अभाव है. इसीलिए आज भी यह सकल नामांकन अनुपात के अपने निर्धारित उद्देश्य 30 प्रतिशत से काफी पीछे है. राज्य विश्वविद्यालयों की तरह केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी शिक्षकों के काफी पद रिक्त हैं. साथ ही बदली हुई वैश्विक एवं अन्य परिस्थितियों की वजह से आवश्यक पदों का सृजन भी शेष है.

 सीधी प्रोन्नति नहीं होने की वजह से उच्च श्रेणी के पद जैसे रीडर, प्रोफेसर अक्सर खाली रह जाते हैं क्योंकि अन्य विधियों से प्रोन्नत शिक्षकों को तो रीडर या प्रोफेसर के पद मिल जाते हैं किन्तु रीडर एवं प्रोफेसर के पदों के साथ प्रोन्नत शिक्षक के आरंभिक पद उनसे जुड़े होने की वजह से खाली नहीं माने जाते हैं. 2004 के बाद बदली पेंशन नीति के कारण केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को सीधी भर्ती में या तो पद खाली रखने पड़ते हैं या योग्य प्राध्यापक नहीं मिलते. कई राज्य विश्वविद्यालयों में तो प्रोन्नति के हर मामले का निपटारा कोर्ट की मदद से ही होता है और शिक्षक पढ़ने-पढ़ाने की ऊर्जा को कोर्ट-कार्यों में लगाते हैं. प्रोन्नति सीधी भर्ती से हो या अन्य विधियों से सहज-सामान्य, सतत, एवं वैज्ञानिक होनी चाहिए.

अकादमिक प्रदर्शन सूची (एपीआई)के लागू होने के बाद प्रोन्नति का कार्य तो अधिक कठिन हो ही गया है, दोयम दर्जे के प्रकाशन एवं गोष्ठियों के आयोजन ने गुणवत्ता के समक्ष बड़ी चुनौती रखी है. शोध-पत्रों का स्तर गिर रहा है, अनावश्यक रूप से निम्न कोटि की गोष्ठियां आयोजित की जाने लगी हैं और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन पर अधिक समय देने के कारण निश्चय ही कक्षा-शिक्षण भी प्रभावित हुआ है. इस क्रम में यूजीसी द्वारा प्रेषित शोध-पत्रिकाओं की सूची भी अवैज्ञानिक एवं अधूरी-सी है. गुणवत्ता के मूल्यांकन के लिए किया जा रहा यह प्रयास भी शिक्षा माफिया के नजरे-करम से बचा नहीं रह सका है. निजी संस्थाओं के बढ़ते प्रभाव एवं सरकार का इनके विकास के प्रति दृष्टिकोण एक चिंताजनक तथ्य है और सरकारी संस्थाओं की बढ़ती समस्याएं एवं घटते स्तर इसे अधिक गंभीर मुद्दा बना रहे हैं.

सरकार को समय-समय पर अपनी लागू योजनाओं के प्रभाव का मूल्यांकन कर उनमें बदलाव करने की भी जरूरत है. शिक्षकों के व्यावसायिक उत्थान के लिए लागू किये गये कार्यक्रम जैसे ओरिएंटेशन कोर्स, रिफ्रेसर कोर्स आदि की समीक्षा भी जरूरी है. यूजीसी के माध्यम से केन्द्र सरकार इन कार्यक्रमों के संचालन पर काफी पैसा खर्च करती है. क्या इन कार्यक्रमों से गुजर कर अध्यापक अधिक प्रखर हो रहे हैं? यूजीसी की पात्रता-परीक्षा एवं शोध के लिए राशि प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की संख्या काफी बढ़ा दी गयी है, शोध के लिए अधिक धन दिये जा रहे हैं. क्या यह प्रयास शोध की गुणवत्ता एवं पात्रता परीक्षा पास करने वाले चयनित विद्यार्थियों की क्षमता को बढ़ा रहा है? या फिर संख्या बढ़ाकर केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा के उद्देश्य एवं स्तर से समझौता कर लिया है? क्या यूजीसी जैसे केन्द्रीय संस्थान एवं हर राज्य के सचिवालय में शिक्षा विभाग के होते हुए भी राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान को लागू करने के लिए और कई नये विभाग खोलने की वाकई आवश्यकता थी?



उच्च शिक्षा के तीन निर्धारित उद्देश्य हैं शिक्षण, शोध एवं विस्तार कार्य और इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति का माध्यम होता है-पाठयक्रम. किंतु पाठ्यक्रम शून्य में विकसित नहीं किया जाता है और नहीं पाठ्यक्रम निर्माण एकल पद्धति से किया जा सकता है. पाठ्यक्रम एक व्यापक सम्प्रत्यय है. आम जन की भाषा में पाठ्यक्रम पाठ्य-सूची एवं पाठ्यसहगामी क्रियाओं का संगठित रूप है. तात्पर्य पाठ्यक्रम में पाठ्य वस्तु की सूचना के साथ यह भी समाहित है कि किन-किन पाठ्य सहगामी क्रियाओं के आयोजन से पाठ्यक्रम के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है. यदि हम अनुदेशनात्मक पण्राली की बात करें तो इसमें उद्देश्यों का निर्धारण, प्रभावी योजना, योजना का क्रियान्वयन एवं मूल्यांकन शामिल है, और किसी भी अनुदेशन कार्यक्रम के पाठ्यक्रम निर्माण में इसका ध्यान रखा जाना ही चाहिए .

पाठ्यक्रम की योजना, पाठ्यक्रम का निर्धारण, पाठ्यक्रम का क्रियान्वयन एवं पाठ्यक्रम का मूल्यांकन अलग-अलग कार्य होते हुए भी इस तरह से जुड़े हैं कि एक के भी गतिहीन होने से पाठ्यक्रम का निर्धारित उद्देश्य समग्रता में प्राप्त नहीं किया जा सकता है. तात्पर्य यह कि पाठ्यक्रम को समग्रता में लेने की जरूरत है और इसकी सफलता के लिए इन प्रश्नों का उचित हल आवश्यक है-पाठ्यक्रम का निर्माण कौन करेगा? इसका क्रियान्वयन कैसे होगा? इसमें मूल्यांकन की कौन-कौन सी पद्धति अपनायी जाएगी? और इसकी प्रभावकता का अध्ययन कैसे होगा?

कहना न होगा कि सिर्फ प्रत्येक तीन वर्ष पर पाठ्यक्रम की पुन: संरचना, पुन:निर्माण या पुन: संशोधन तब तक अर्थहीन है, जब तक उठाये गये प्रश्नों के सही एवं सटीक विकल्प मौजूद न हों. जहां शिक्षकों के पद रिक्त हों, जहां सरकारी शिक्षा संस्थानों की स्थिति खराब हो, शिक्षा की समावेशी एवं कल्याणकारी प्रकृति के साथ समझौता किया जा रहा हो, ग्रामीण शिक्षण की अनदेखी हो रही हो, सिर्फ पाठ्यक्रम सुधार के माध्यम से गुणवत्ता हासिल कर सकने की उम्मीद उच्च शिक्षा से नहीं की जा सकती है.

(शिक्षा संकाय, पटना विश्वविद्यालय)

डॉ ललित कुमार


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