पीड़ित मजदूरों को लाभ मिलेगा?
सिलिका धूल के अधिक कणों से प्रभावित होने वाले लाखों मजदूर हमारे देश में सिलिकासिस बीमारी की गिरफ्त में आ चुके हैं.
सिलिकासिस बीमारी की गिरफ्त में मजदूर. |
बहुत वर्षो तक उपेक्षित रहने के बाद हाल के समय में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग व सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता के कारण अब सिलिकोसिस प्रभावित मजदूरों को राहत देने के निर्देश जारी हुए हैं, पर इन निर्देश के अनुकूल पीड़ित मजदूरों या उनके परिवारों तक राहत पहुचाने की बड़ी चुनौती अभी सामने है. बुंदेलखंड व राजस्थान जैसे अधिक पत्थर के खनन वाले क्षेत्र में यह चुनौती विशेष तौर पर महत्त्वपूर्ण है.
इस दृष्टि से हाल ही में राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में आयोजित जन-सुनवाई का विशेष महत्त्व है. मजदूर किसान शक्ति संगठन द्वारा आयोजित इस जन-सुनवाई में एक ओर तो यह तथ्य उभर कर सामने आया कि मात्र एक ही जिले में सिलिकोसिस से कितने मजदूर पीड़ित हो सकते हैं. साथ ही इसमें काफी समय बाद प्रशासनिक सक्रियता भी नजर आई. जन-सुनवाई में उपस्थित अधिकारियों ने मजदूरों व मजदूर परिवारों के उचित इलाज व राहत के लिए एक सुलझा हुआ कार्यक्रम प्रस्तुत किया.
एक बड़ा मुद्दा है, मजदूरों का इलाज तो दूसरा बड़ा मुद्दा है सिलिकोसिस से पीड़ित परिवारों को राहत राशि उपलब्ध करवाना. पर इन दोनों से बड़ी व महत्त्वपूर्ण चुनौती है, रोकथाम के उचित प्रयास कर सिलिकोसिस की बीमारी में कमी लाना. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा है कि यदि रोकथाम के पर्याप्त उपाय अपनाए जाएं तो सिलिकोसिस से पीड़ित होने वाले अधिकांश मजदूरों को इससे बचाया जा सकता है. पर अभी इस दिशा में बहुत कम प्रगति हुई है. धुएं के गुबार में काम करने वाले मजदूरों को प्राय: देखा जा सकता है.
जन स्वास्थ्य सहयोग द्वारा तैयार की गई \'एटलस ऑफ रूरल हेल्थ\' के अनुसार यह बीमारी केवल बड़े उद्योगों में ही नहीं होती, अपितु ग्रामीण या कस्बाई परिवेश के अनेक उद्योगों में भी होती है. सिलिकोसिस के रोगी इन उद्योगों व रोजगारों में अधिक पाए जाते हैं-पत्थर की खदानें व अभ्रक, क्वार्टज खनन, फांऊड्री, सैंड ब्लास्टिंग, सेरामिक्स, चीनी मिट्टी, हीरे-मोती की कटाई व पालिश, स्लेट व पैंसिल निर्माण व कांच उद्योग. यहां की अनेक कार्यों व प्रक्रियाओं में प्राय: संभावित दुष्परिणामों की जानकारी के बिना मजदूर सिलिका के बारीक कणों को सांस लेने के साथ अपने शरीर में प्रवेश कर लेते हैं और उनके फेफड़ों की क्षति आरंभ हो जाती है, जिससे टिश्यू के फाईब्रासिस बन जाते हैं. इन क्षेत्रों में प्राय: श्रमिक असंगठित हैं. जो व्यक्ति सिलिकोसिस से त्रस्त हैं, उन्हें इसके साथ तपेदिक से भी पीड़ित होने की आशंका बढ़ जाती है.
इंडियन काऊंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की एक रिपोर्ट (1999) के अनुसार भारत में लगभग 30 लाख मजदूरों की सिलिका के अधिक संपर्क में आने की आशंका है. इनमें से 17 लाख खनन व उत्खनन में हैं, 6.3 लाख कांच व अभ्रक उद्योग में हैं व 6.7 लाख धातु उद्योगों में हैं. इसके अतिरिक्त, 53 लाख निर्माण मजदूर भी सिलिका के अधिक संपर्क में आ सकते हैं. यह संख्या इससे भी अधिक हो सकती है क्योंकि बहुत से मजदूरों की बीमारी का पता नहीं लग पाता है व अनेक मजदूरों को सिलिकोसिस होने के बावजूद इलाज केवल तपेदिक का ही हो पाता है.
बुंदेलखंड जैसे अधिक पत्थर खनन वाले क्षेत्रों में प्राय: ऐसे मजदूरों के समाचार मिलते हैं, जो कुछ वर्षो तक खनन व अभ्रक कार्य में मेहनत के बाद असाध्य बीमारी से पीड़ित होकर बिस्तर पकड़ लेते हैं. इन मजदूरों की बीमारी की पहचान प्राय: सिलिकोसिस के रूप में हो ही नहीं पाती है और इस कारण उन्हें जरूरी राहत भी नहीं मिल पाती है. अब पहली बार अदालती सक्रियता के कारण ऐसा माहौल बना है कि ऐसे उपेक्षित मजदूरों को उम्मीद की कोई किरण नजर आई है. उन्हें जो राहत-सहायता उपलब्ध है, यह उन तक पहुंचाने में कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं, दोनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है.
इसके साथ प्रदूषण कार्यस्थल पर प्रदूषण को न्यूनतम करने के लिए भी प्रशासनिक सक्रियता से बहुत से मजदूरों के जीवन की रक्षा हो सकती है. सिलिकोसिस से मजदूरों की रक्षा करने को व पीड़ित परिवारों तक सहायता पहुंचाने के कार्य को अब एक व्यापक जन-अभियान के रूप में अपनाना जरूरी है जिसमें मजदूर संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व प्रशासनिक अधिकारियों सभी को परस्पर सहयोग से कार्य करना चाहिए.
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