नजरिया : ये कहां आ गए हम ?

Last Updated 26 Feb 2017 06:16:43 AM IST

इकबाल ने कभी लिखा था-‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी/सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा.’ वह न मिटने वाली हस्ती किस बात की रही होगी.


नजरिया : ये कहां आ गए हम ?

शायद इससे उनका आशय हिन्दुस्तान के त्याग, बलिदान और उसकी आध्यात्मिक ऊंचाई से रहा होगा. पर हमारी वह हस्ती आज गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और मानव विकास के अन्य वैश्विक सूचकांक में हमें सबसे निचले पायदान पर हांफती मिलती है. हालांकि बीच-बीच में कोई-कोई हासिल बड़ी उपलब्धियों से हमारी सदियों की हस्ती का पता भी चलता है. जैसे हाल में इसरो का 104 उपग्रह छोड़कर विश्व कीर्तिमान बनाना. पर ऐसी ऊंचाइयां या सफलताएं सतत नहीं हैं.

स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान बने गांधी के अहिंसा के दर्शन को या भगत सिंह के ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ के ‘ड्रीमलैंड’ की भूमिका में व्यक्त उनके विचारों को समझना हो या नेताजी के आजाद हिन्द फौज की स्थापना को-कहीं न कहीं इकबाल का यह गीत इन उदाहारणों से प्रेरित है, जो हमारे आजादी के संघर्ष में बलिदान की कहानी कहते हैं. आजादी के बाद पंडित नेहरू के कैबिनेट में रेल मंत्री रहते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने सिर्फ  एक रेल दुर्घटना की अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र दे दिया था. भारतीय राजनीति में नैतिक जिम्मेदारी का यह श्रेष्ठ उदाहरण अब पूरी तरह गायब हो गए हैं. यूपीए के 10 सालों के कार्यकाल में कई घोटाले हुए पर किसी भी मंत्री या इनसे संबंधित किसी व्यक्ति ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली, इस्तीफा देना तो दूर की बात रही. 

वहीं, अमेरिका में 70 के दशक में उजागर वाटरगेट कांड में राष्ट्रपति र्रिचड निक्सन समेत 69 लोगों को इस्तीफा देना पड़ा. उन पर मुकदमा चला और 48 लोग जेल भी गए. इसके बाद वहां नये प्रकार की नैतिकता का सूत्रपात हुआ और निक्सन के बाद कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति ऐसा नहीं हुआ, जिस पर सीधे तौर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हों. ठीक वैसे ही 2008-09 में ब्रिटेन के कुछ सांसदों द्वारा अतिरिक्त खर्च का मामला सामने आया. इस संदर्भ में पहले सूचना के अधिकार के तहत जानकरी देने पर बहस चल ही रही थी कि ‘द टेलीग्राफ’ अखबार ने खुलासा कर दिया, जिसमें करीब 3 दर्जन सांसदों द्वारा बेहद मामूली रकम खर्च करने की बात सामने आई, जिसके बाद मुकदमा चला और कुछ को जेल भी हुई. कुछ सांसदों ने इसके बाद राजनीति से ही संन्यास ले लिया. इसमें कुछ सांसद भारतीय मूल के भी थे.

इसके विपरीत, हमारे यहां जब कोई व्यक्ति जनप्रतिनिधि चुना जाता है या मंत्री बनता है तो उसका जनता से संवाद टूट जाता है. यह बनता भी है तो पांच साल बाद फिर जब चुनाव आते हैं. सत्तासीन होने के बाद ऐसे राजनीतिकों का एकमेव उद्देश्य खुद को धनवान और शक्तिशाली बनाना रह गया है. अब कोई भी व्यक्ति राजनीति में अपने नैतिक बल के सहारे संचालित होने का माद्दा नहीं रखता. जैसा गांधी जी कहते थे कि राजनीति से अगर नैतिकता को हटा दिया जाए तो वह भटकी हुई राजनीति हो जाएगी.

सवाल यही हैं कि भारतीय राजनीतिक जीवन से नैतिकता खो क्यों गयी? क्या इसके लिए हम सभी जिम्मेदार नहीं हैं या इसका दोष कुछ चंद राजनीतिकों पर मढ़ कर हमें निश्ंिचत हो जाना चाहिए? क्या यह सामूहिक जिम्मेदारी का विषय नहीं है? अपने दो दशकीय पत्रकारीय जीवन में मुझे यह देखकर निराशा होती है कि संविधान की प्रस्तावना में लिखित अपने दायित्वों से राजनेता मुंह मोड़ते नजर आते हैं. आज शासन में आने और सरकार बनाने की लड़ाई का मकसद सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा और लूट के लिए गिद्ध दृष्टि लगाये रहने तक रह गया है. जैसे पूरी राजनीति पांच साल के पट्टे की लड़ाई बन कर रह गयी है. सियासत में कितनी गिरावट आई है, इसकी बानगी हमें उत्तर प्रदेश में देखने को मिली, जब खुर्जा विधान सभा सीट से प्रत्याशी मनोज गौतम ने वोटरों की हमदर्दी बटोरने के लिए अपने भाई की हत्या करवा दी.

लुई चौदहवां फ्रांस का अहंकारी शासक था, जिसके दरबार में आने पर पर्दा हटाया जाता और कहा जाता कि सूर्य की रोशनी को यहां आने की इजाजत है. लेकिन उसने भी अपने बेटे लुई पंद्रहवां को लिखे एक पत्र में राज्य संचालन के लिए ईमानदार लोगों व त्यागी-बलिदानी सेनापति को अपने साथ रखने का सुझाव दिया था. लेकिन इस पर अमल न करने का नतीजा हुआ कि लुई 16 के आते-आते फ्रांस में विद्रोह हो गया. कुछ ऐसा ही पत्र औरंगजेब ने भी अपने बेटे को लिखा था. कहने का मतलब यह कि हरेक शासक अपनी आने वाली पीढ़ी को कुछ उपयोगी सुझाव-सलाह देना चाहता है. लेकिन सवाल है कि इनके बावजूद बुनियादी भूल कहां होती है? भटकाव कहां से शुरू होता है?

यहां यह बात समझने की है कि जो सीख हमें बचपन में नागरिकता की पहली पाठशाला कहे जाने वाले परिवार से मिलती है, वही आगे चल कर हमारे जीवन में उतरती है. फिर भी संविधान की शपथ लेकर विभिन्न संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के आचरण में भ्रष्टाचार कहां से जन्म ले लेता है? क्या भ्रष्टाचार और इस प्रकार की गलत आकांक्षाओं को समाप्त करने के लिए वही प्रयास जरूरी हैं, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किये जा रहे हैं? क्या काले धन और बेनामी संपत्ति पर कानून बना देने या आयकर विभाग के लगातार छापों से यह भ्रष्टाचार कम होने वाला है या और बढ़ने वाला है? क्या नोटबंदी के बाद हवाला से जाने वाला पैसा बंद हो गया है या अभी भी चल रहा है? दिल्ली से मुंबई जाने वाला पैसे का भाव पहले एक लाख रु पये पर 300 रु. था और अब 400 रु. हो गया है. फिर इस बात की गारंटी कौन और कैसे ले सकता है कि इन कॉस्मेटिक उपायों से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा?

ऐसा नहीं है कि आरोप सिर्फ  यूपीए शासनकाल में लगे थे या एनडीए में नहीं लगे. भले ही अदालतों में वे साबित न हो पाए हों. लेकिन शास्त्री जी की नैतिक छाया के इर्दगिर्द भी आज का कोई राजनेता फटकता नहीं दिखता. दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल का सुशासन-प्रयोग असफल होता दिख रहा है. सवाल है कि जनिहत के कामों को करने के लिए वे कौन-सी ताकतें हैं, जो ईमान से काम करने वालों के हाथ रोकती हैं? इकबाल की कविता को सही अथरे में रूप देना है तो सतही सत्ता की अहंकारी राजनीति छोड़कर, सहज और सरल लोगों को साथ लेकर नैतकिता, बलिदान और सेवा वाली राजनीति करनी होगी. पश्चिमी देशों में सड़क किनारे बिना किसी सुरक्षा के तामझाम के राष्ट्रअध्यक्षों को अपने पास से गुजरते हुए देखना सरल भावना पैदा करती है. यही सरलता हमारे देश में उच्च पदों पर आसीन जनप्रतिनिधियों में उतरे, जनता के लिए सेवा का भाव हो, दूसरों के लिए जीने की विलुप्त होती जा रही संस्कृति का भाव फिर से जागे तो शायद एक बार फिर हिंदुस्तान को महान देश बनाने की दिशा में एक नई शुरुआत हो सकती है.

उपेन्द्र राय
तहलका के सीईओ व एडिटर इन चीफ


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