मीडिया : लिपिस्टिक

Last Updated 26 Feb 2017 06:09:54 AM IST

अब कोई भी पिक्चर अपने आप रिलीज नहीं होती. वह जब भी रिलीज होती है, उससे पहले किसी न किसी विवाद को जन्म देती दिखाई देती है.


लिपिस्टिक अंडर माई बुर्का

विवाद के बाद ज्यों ही वह रिलीज होती है, उसको सफलता मिली बताई जाती है. आलोचक उसके गुन गाने लगते हैं और टीवी उसकी रिलीज के दिन सिनेमाहालों पर जाकर दर्शकों की लाइव बताने लगता है कि पिक्चर हिट हो गई है. लाइव दर्शक एक-सी राय देते नजर आते हैं कि पिक्चर देखने योग्य है. यह उसका ‘प्रोमो’ होता है. पिछले दो-तीन बरसों में फिल्मों के हिट होने का एक पैटर्न-सा बन चला है.

यह प्रकारांतर से ‘फिल्म प्रमोशन’ ही है. इसके दो मोटे-मोटे पैटर्न हैं-पहला पैटर्न. पिक्चर रिलीज के ऐन पहले या तो कोई स्वनियुक्त धर्मिक या नैतिक समूह पिक्चर पर आपत्ति उठा देता है कि इस पिक्चर से उसकी भावनाएं आहत हो सकती हैं. इसलिए पिक्चर अगर रिलीज हुई तो सिनेमा हालों की खैर नहीं. ऐसी धमकी के आते ही सनसनी फैल जाती है. मीडिया इस पुण्यकार्य में मदद करने लगता है. इसे विवाद का विषय बनाकर एक ओर अपने कर्तव्य को पूरा करता है. दूसरी और विवाद को गोद लेकर पांच-सात दिन तक पालता-पोसता रहता है.

विवाद पैदा होते ही वह पिक्चर, उसका निर्माता या हीरो या कथाकार फोकस में आ जाते हैं. उधर कोई नामालूम सा कथित धर्मिक या नैतिक समूह फोकस में आ जाता है, उसके वक्ता-प्रवक्ता टीवी के प्राइम टाइम में आकर विराज जाते हैं और वहां भी धमकी देते रहते हैं. उधर, निर्माता आदि रिरियाने लगते हैं कि हमारा इरादा किसी की भावनाओं को आहत करने का नहीं है. फिर मीडिया कहने लगता है कि इन दिनों कलाएं सबसे नरम निशाना बनाई जा रही हैं. बुद्धिजीवी कहने लगते हैं कि क्या फासिज्म आ गया है. फिर बहसें इस बात में फंस जाती हैं कि यह पूरा फासिज्म है कि अधूरा फॉसिज्म है.

टीवी की बहसों में हर चैनल पर बैठे ऐसे आहत भावना वालों की बॉडी लैंग्वेज देखें तो मालूमम पड़ता है कि वे एकदम सुखी और स्वस्थ हैं. टीवी में दिखकर वे और अकड़े हुए हैं. उनकी भावनाएं आहत हों, न हों; वे जरूर किसी को आहत कर सकते हैं. एंकर उनकी मिन्नत करते रहते हैं कि आप आजादी का गला तो न घोंटे. देखिए सर जी ये डेमोक्रेसी है. अभिव्यक्ति की आजादी है, संविधान देता है इत्यादि. पांच-सात दिन ऐसी ही बहसें चलती रहती हैं. पहले पिक्चर बनाने वाले और समूह निपटते हैं. फिर नेता और बड़े नागरिक मैदान में आकर जूझते दिखते हैं. फिर दलीलें होती हैं, अपीलें होती हैं. कभी-कभी पुलिस गारंटी लेती है कि आप दिखाएं कुछ न होगा. लेकिन कुछ न कुछ होता दिखता रहता है और पुलिस खड़ी देखती रहती है और मीडिया हल्ला करता रहता है.

लेकिन न विवाद थमता है न हाय-हाय थमती है. पिक्चर रिलीज होकर सुपर हिट हो जाती है. रिलीज हो जाने के बाद और सुपर हिट हो जाने के बाद कोई याद नहीं रखता कि इतना विवाद किस कारण उठा था. जो आपत्ति थी, वह कितनी सच्ची थी और सामाजिक थी? और अब उन आहत भावनाओं का क्या हाल है? सब बातें आई-गई हो जाती हैं. फिर किसी पिक्चर के रिलीज की डेट आने से पहले विवाद सुगबुगाने लगते हैं और फिर से वही पैटर्न रिपीट होने लगता है.

पिछले तीन साल या उससे भी कुछ अधिक समय से यह पैटर्न स्थिर-सा हुआ है कि लगता है कि पिक्चर की रिलीज और विवाद में चोली-दामन का साथ है. इन दिनों कोई पिक्चर बिना विवाद के रिलीज नहीं होती. विवाद के बाद पिक्चर जब कमाई कर लेती है तो मामला शांत हो जाता है. अब लगने लगा है कि इस तरह की ‘सविवाद रिलीजों’ के पीछे एक योजना काम करती है, जिसमें पिक्चर बनाने वाले और कुछ किराए के समूहों की मिलीभगत होती है. अगर कोई विवादों की अंदर की बात को पता लगाए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो कि कौन-सा विवाद ‘अहेतुकी’ था यानी ‘जेनुइन’ था. ईमानदार या और कौन-सा ‘सहेतुकी’ था. ‘बेईमान’ था यानी प्रायोजित था, पेड था.

विवाद के दूसरे पैटर्न के जनक वर्तमान सेंसर बोर्ड के मुखिया जी हैं, जिनको मीडिया ने शुरू में ही ‘संस्कारी सेंसर’ के नाम से नवाजा है.  ये भी अपनी नैतिक आपत्तियों से वैसा ही विवाद पैदा करते रहते हैं जिस तरह का विवाद ‘नैतिक समूह’ किया करते हैं. कुछ दिन पहले इन्होंने ‘उड़ता पंजाब’ को सहज हिट होने देने की जगह अपने तरीके से ‘हिट’ किया. अब लगता है कि ‘लिपिस्टिक अंडर माई बुर्का’ को ‘हिट’ कराने जा रहे हैं.

सुधीश पचौरी
लेखक


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