चुनावी चंदा : आधा-अधूरा इलाज
कोई भी समझ सकता है कि राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत काम करने वाले राजनीतिक दलों के बैंक खातों में वैध और अवैध दोनों ढंग से धन का प्रवाह होता रहता है.
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यह व्यवस्था आजादी के 70 सालों के बाद भी बेरोकटोक चल रही है. लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए इसे गलत भी नहीं ठहराया जा सकता. राजनीतिक दलों को चुनाव प्रचार के साथ-साथ अपने राजनीतिक संस्थानों को चलाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती ही है.
राजनीतिक दल जनता और सरकार के बीच सेतु का काम करते हैं, लिहाजा उनसे यह अपेक्षा रहती है कि वे जनता के प्रति जवाबदेह रहें. उनकी जवाबदेही और वित्तीय पारदर्शिता लोकतंत्र को टिकाऊ और मजबूत बनाने में कारगर होते हैं. इसी बात को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय सूचना आयुक्त ने 2013 में यह फैसला सुनाया था कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का हिसाब-किताब रखा जाना आवश्यक है. उसने इसके कुछ फायदे भी गिनाए थे कि इससे भ्रष्टाचार और काले धन पर पर्याप्त ढंग से रोक लगेगी तथा सुशासन आएगा. वित्त मंत्री अरुण जेटली का भी कहना है कि अगर चुनाव आयोग चंदे को कैशलेस बनाने की बात कहेगा तो सरकार उस पर विचार कर सकती है.
दरअसल, लोक सभा चुनाव के दौरान भाजपा और उसके अग्रणी नेता नरेन्द्र मोदी ने देश को भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्त कराने का वादा किया था. मतदाताओं ने उन पर भरोसा किया और उनकी पार्टी को स्पष्ट बहुमत दिया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काले धन और भ्रष्टाचार को खत्म करने की प्रतिबद्धता बार-बार दोहराई. लेकिन जब पहल हुई तो वह कम या अधूरी मानी गई. इसलिए कि मोदी से सबको कुछ ज्यादा ही उम्मीद है. फिर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के अथक आलोचक राहुल गांधी सहित तमाम राजनीतिक दलों के नेता जनप्रतिनिधित्व कानूनों में बदलाव पर सहमत हैं तो फिर उसमें ऐसा बदलाव क्यों न किया या कराया जाए जो ऐतिहासिक हो जाए! बात राजनीतिक दलों के चंदे के लेन-देन और उसकी पारदर्शिता को लेकर है और देश का प्रत्येक नागरिक और राजनीतिक दल सरकार के कामकाज में पारदर्शिता चाहते हैं.
दरअसल, राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को लेकर लंबे समय से सवाल उठाये जा रहे थे. इस चंदे को ‘सूचना के अधिकार’ के तहत लाये जाने की मांग अभी यथावत है. ऐसा इसलिए है कि चुनाव लड़ने के लिए बनाई गई बहुत सारी पार्टियों को काले धन को सफेद करने का जरिया माना जाता है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट कहती है कि देश में तकरीबन 400 ऐसे राजनीतिक दल हैं, जिन्होंने कभी चुनाव में हिस्सा नहीं लिया पर वे चंदे लेती रही हैं. सवाल यह है कि चंदा देने वाले ये लोग कौन हैं? वे ऐसे दलों को चंदे में पैसे क्यों देते हैं? ये सब राज ही रह जाता है. दूसरे, फिर भाजपा, कांग्रेस सहित सभी प्रतिष्ठित व मुख्यधारा के दलों को मिलने वाले चंदे का अधिकांश हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आता है. अब अगर चंदा देने वाले व्यक्ति, संस्था या कम्पनी के नाम सार्वजनिक कर दिये जाएं तो चंदा देने का उनका मकसद जाहिर हो जाएगा. यह काम अभी बाकी है.
एक बात और. पहले राजनीतिक दलों को बीस हजार रुपये तक चंदा नगद में लेने की छूट थी. अब मोदी सरकार ने इसकी सीमा घटा कर दो हजार रुपये कर दी है. घपले रोकने में यह हदबंदी भी काफी नहीं है; क्योंकि राजनीतिक दलों के पास लाखों कार्यकर्ता हैं. वह लाखों-करोड़ों के एकमुश्त चंदे को प्रति कार्यकर्ता दो हजार रुपये में बांट कर कानून से बचने का रास्ता पहले की तरह ही निकाल लेंगे. अब सवाल है कि जब आम आदमी को अज्ञात स्रोत से मिले पैसे पर जुर्माना भरना पड़ता है या उसके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है तो राजनीतिक दलों को अज्ञात स्रोतों के जरिये मिले धन पर कोई सवाल क्यों नहीं उठाया जाना चाहिए? लिहाजा, इन्हें भी कानून के दायरे में लाने की जरूरत है.
इससे जुड़ी अहम बात यह कि सरकार जब देश के आम आदमी से डिजिटल पेमेंट करने और कैशलेस व्यवस्था अपनाने की सीख दे रही है, उन्हें प्रोत्साहन दे रही है तो राजनीतिक दलों को भी दो हजार रुपये का चंदा भी बैकिंग सिस्टम के जरिये लेने के लिए क्यों न कानून बाध्य किया जाए? इसलिए भी कि एडीआर की रिपोर्ट में राजनीतिक दलों द्वारा लिये जाने वाले चंदे और उनमें हो रही भारी अनियमितताएं उजागर की गई हैं. रिपोर्ट के मुताबिक बीते 11 सालों के दौरान कांग्रेस का 83 फीसद तथा भाजपा का 65 फीसद चंदा अज्ञात स्रोतों के जरिये हासिल हुआ है. दूसरे दलों तथा क्षेत्रीय दलों की स्थिति बहुत ही खराब है. उनके चंदे का अधिकांश हिस्सा अज्ञात स्रोतों के जरिये हासिल हुआ है.
इतने गहन अंधकारमय परिस्थितियों में पारदर्शिता के समर्थन में मोदी सरकार की एक छोटी-सी शुरुआत भी सराहनीय है. लेकिन बात पूरी तरह से पारदर्शी व्यवस्था बनाने की है तो इस दिशा में भी कवायद शुरू हो गई है.अब सरकार चुनावी चंदे के लिए चुनाव बॉण्ड जारी करने जा रही है. सभी राजनीतिक दलों को निर्धारित समय सीमा के भीतर आयकर रिटर्न दाखिल करने की अनिवार्यता रखी गई है. काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार द्वारा चलाये गये अभियान में सीमा से अधिक नकदी लेन-देन पर रोक लगाने की पहल की गयी है. काले धन पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनी एसआईटी के सुझाव को सरकार ने बजट में शामिल किया है.
एसआईटी द्वारा सीमा से अधिक नगदी लेन-देन को गैर कानूनी और करने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई किये जाने की सिफारिश को भी शामिल किया गया है. अब सवाल है कि राजनीतिक दलों के चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए क्या करने की जरूरत है? इस बारे में मेरा सुझाव है कि नकदी लेन-देन पर पूरी तरह से पाबंदी लगाई जाए और चंदा देने वालों के बैंक खातों को आधार कार्ड से लिंक कर दिया जाए. इसके बाद इसे सूचना के अधिकार से भी जोड़ दिया जाए. इससे पूरी तरह तो नहीं, लेकिन एक सीमा तक राजनीतिक दलों के वित्तीय प्रबंधन में पारदर्शिता लाई जा सकेगी और उन्हें जनता के प्रति जवाबदेह भी बनाया जा सकेगा. इससे मोदी सरकार की नेक मंशा ही सिद्ध होगी.
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