सपा : नये सुप्रीमो का आगाज

Last Updated 18 Jan 2017 03:11:26 AM IST

निर्वाचन आयोग द्वारा समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और उनके पुत्र मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के बीच साइकिल चुनाव चिह्न के आवंटन को लेकर चल रहे विवाद का पटाक्षेप हो गया.


सपा में नये सुप्रीमो का आगाज

चुनाव आयोग के निर्णय के अनुसार अखिलेश की पार्टी ही असली समाजवादी पार्टी है, अखिलेश ही सपा के असली अध्यक्ष हैं और साइकिल का चिनाव-चिह्न भी उनका ही है. इससे बेहतर कोई स्थिति अखिलेश के लिए हो नहीं सकती. लेकिन चुनाव आयोग का निर्णय बेहद दिलचस्प है. आयोग ने सपा के संविधान की उन धाराओं का संज्ञान तो लिया है, जो मुलायम के विरु द्ध जाती हैं, लेकिन उन धाराओं का नहीं जो मुलायम को किसी भी स्थिति में अंतिम अधिकार देती हैं.

पर इससे भी विचित्र यह है कि चुनाव आयोग ने एक तरफ तो सपा के संविधान के प्रावधानों के आधार पर निर्णय देने से मना किया और वहीं दूसरी और सपा के ही संविधान के हवाले से यह स्वीकार किया कि मुलायम ने संविधान का उल्लंघन किया है. न केवल यह विरोधाभास इस निर्णय की वैधानिकता पर प्रश्न-चिह्न लगाता है, वरन आयोग द्वारा सादिक़ अली बनाम निर्वाचन आयोग मुक़दमे (1972) का हवाला देकर एक गुट को संख्या के आधार पर असली पार्टी होने की मान्यता देकर राजनीतिक कारक को अपने निर्णय का आधार बनाता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट में बचाना कठिन होगा.

इस प्रकरण में मुलायम की भूमिका भी संदिग्ध है. आयोग के अनुसार न तो उन्होंने अपने दावे के समर्थन में कोई ‘एफिडेविट’ दिया, न ही अखिलेश के पक्ष में किये दावे को चुनौती देने वाला कोई ‘एफिडेविट’. तो क्या मुलायम की असली मंशा कहीं यही तो नहीं थी जो कुछ हुआ?

साइकिल चुनाव-चिह्न आवंटित होने से अखिलेश ने राहत की सांस ली होगी. इससे न केवल सम्पूर्ण पार्टी पर उनका वर्चस्व स्थापित हो गया वरन उनकी चुनाव प्रचार-सामग्री और तमाम चुनावी तैयारियों पर भी कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा. सबसे महत्त्वपूर्ण है कि वे सपाई जो पिता-पुत्र विवाद को लेकर असमंजस की स्थिति में थे वे अब निश्चिंत होकर पार्टी का प्रचार कर सकेंगे. लेकिन अभी भी यह साफ़ नहीं है कि मुलायम-शिवपाल गुट चुनाव में क्या रणनीति अपनाएगा. उनके सामने भी कई विकल्प हैं.

एक, मुलायम-शिवपाल किसी नई पार्टी और चिह्न पर चुनाव में उतरें. दो, वे किसी पुरानी पार्टी जैसे लोक-दल के बैनर से चुनाव लड़ें. तीन, वे कह दें कि कोई विवाद ही नहीं है. सब ठीक है, पार्टी में एका है और सब मिल कर भाजपा को हराने के लिए अखिलेश को मज़बूत करें. और,चार, वे सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा भी खटखटाएं और चुनाव आयोग के इस निर्णय को चुनौती दें. इन विकल्पों पर विचार करने में क्या मुलायम ‘शिवपाल एंड कंपनी’ को नज़रअंदाज़ कर पाएंगे? तमाम ऐसे प्रत्याशी जिनकी घोषणा शिवपाल यादव कर चुके हैं और जो अखिलेश की सूची में भी नहीं हैं, वे क्या करेंगे? जिस कौमी-एकता-दल का विलय मुलायम-शिवपाल ने कराया था उसके प्रत्याशी कहां जायेंगे? यह समस्या इसलिए भी गंभीर है क्योंकि मुलायम अभी भी अखिलेश की सपा के मार्गदर्शक हैं और उनके पिता भी हैं.

सपा में चुनाव-चिह्न का विवाद भले ही फिलहाल खत्म लगता हो, लेकिन पार्टी के मतदाताओं के लिए अभी विवाद पूरी तरह से सुलझा नहीं. खास तौर से सपा के कोर-वोट-बैंक यादव, ठाकुर और मुस्लिम अभी भी पेसोपेश में होंगे. चुनाव में यादव मत बटेंगे जरूर; संगठन में मुलायम-शिवपाल गुट की कुछ पकड़ तो बनी ही हुई है. ठाकुर जरूर दूसरा ठौर तलाश रहे हैं और ऐसा माना जा रहा है कि न केवल सपा, वरन अनेक दलों के ठाकुर विधायक और राजनीतिज्ञ राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री बनने की प्रत्याशा में भाजपा की ओर आकृष्ट हो रहे हैं. वैसे भी दयाशंकर सिंह-मायावती प्रकरण के बाद ठाकुर-ब्राह्मण मतदाताओं का रु झान भाजपा की ओर बढ़ा ही है. मुस्लिम वोटरों के लिए अभी भी सपा बेहतर विकल्प है, पर मायावती उसमें कुछ सेंध लगा सकती हैं क्योंकि 2012 के 60 मुस्लिम बसपा प्रत्याशियों की तुलना में उन्होंने इस बार लगभग 97 मुस्लिमों को टिकट दिया है.

अखिलेश को यह चुनाव न केवल भाजपा और बसपा के विरुद्ध लड़ना है (कांग्रेस और रालोद से वे संभवत: गठबंधन करना चाहते हैं), वरन अपनी पार्टी के एक हिस्से के विरु द्ध भी लड़ना है, वह हिस्सा जिसके भीष्म और द्रोणाचार्य स्वयं उनके पिता मुलायम और चाचा शिवपाल हैं. विगत कुछ वर्षो में अखिलेश ने विकास के लिए ख्याति अर्जित की है, लेकिन उनकी पारिवारिक और पार्टी की कलह से मतदाता ऊब गया है. और इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसी परिस्थिति में प्रदेश में शासन और प्रशासन दोनों ही बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, विकास के कार्य धीमे पड़े हैं और मतदाताओं में नकारात्मक संदेश गया है.

यदि ऐसा न हुआ होता तो बहुत से नए और युवा मतदाता अखिलेश के पाले में खड़े दिखाई देते. उनको अखिलेश में नव-समाजवाद और नव-विकासवाद की संभावनाएं दिखाई दे रही थीं. लेकिन ऐसे कुछ मतदाता उनसे छिटके हैं. उनमें से बहुतों को लगता है कि कहीं मुलायम-अखिलेश विवाद अखिलेश के शासन की खामियों को ढंकने, उनकी मीडिया छवि सुधारने और उनको चर्चा का विषय बनाने का कोई प्रायोजित कार्यक्रम तो नहीं? अखिलेश को ऐसे मतदाताओं को फिर से संतुष्ट करना पड़ेगा; उनको फिर से तलाशना पड़ेगा.

यह जरूर है कि अखिलेश की ताजपोशी का जो सिलसिला 2012 के विधानसभा चुनावों के बाद अचानक उनको मुख्यमंत्री बना कर शुरू किया गया था, आज उसकी चरम परिणति दिखाई देती है. आज की तारीख में अखिलेश सपा के नए सुप्रीमो के रूप में उभरे हैं. उनका पार्टी, सरकार और पार्टी के खज़ाने पर एक-छत्र  अधिकार हो गया है. देखना होगा कि क्या वे अपने को इस उत्तरदायित्व के लायक सिद्ध कर पाते हैं? क्या वे समाजवाद और सपा की गिरती साख को बचा पाते हैं? क्या वे समाजवाद को विकासवाद से जोड़ कर उसे नई ऊंचाइयों पर ले जा पाते हैं? 2017 विधानसभा चुनाव अखिलेश, सपा और समाजवाद के लिए एक अग्निपरीक्षा है जिसमें सफल हो कर निकलने पर अखिलेश को ‘सपा-सुप्रीमो’ का खिताब मिल सकता है.

डा. ए.के. वर्मा
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment