मुद्दा : खदान उद्योग में बढ़ते जोखिम

Last Updated 13 Jan 2017 05:46:20 AM IST

चासनाला खदान हादसे का नाम कितने लोगों ने सुना है. आज से ठीक इकतालीस साल पहले 27 दिसम्बर 1975/ में कोयला खदान में अचानक पानी भर जाने से हुई 375 श्रमिकों की दर्दनाक मौत ने पूरे देश में हलचल पैदा की थी.


मुद्दा : खदान उद्योग में बढ़ते जोखिम

आयोग बने थे. सिफारिशें पेश की गई थीं. और यह संकल्प लिया गया था कि आइंदा किसी श्रमिक सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम किया जाएगा और किसी को भी इस तरह नाहक मरने नहीं दिया जाएगा.

बीता 2016 का साल-जो हाल के समय में खदान दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों के मामले में शीर्ष पर रहा, दरअसल, इस बात की ताकीद करता है कि जब श्रमिकों के जानमाल की सुरक्षा का सवाल आता है, तब चीजें गुणात्मक तौर पर कतई नहीं बदलती हैं, विश्व के सबसे खतरनाक खदान हादसों में गिने जानेवाले चासनाला की छाया आज भी हमारा पीछा कर रही है. झारखंड के गोड्डा जिले के लालमटिया कोलियरी में बीते साल के अंत में हुए हादसे को ही देखें, जिसमें 18 श्रमिकों की मौत हुई है. उसके बारे में खुद झारखंड राज्य की मुख्य सचिव ने इस बात को स्वीकारा है कि सुरक्षा उपायों में कमी के चलते ही यह खदान धंस गई थी.

लालमटिया कोलियरी जिस ईस्टर्न कोलफील्ड के तहत आती है और स्थानीय एजेंसी महालक्ष्मी-जिसे खदान कार्य का जिम्मा मिला था, उसके खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की गई है. हादसे के बाद सरकार की तरफ से ऐलान किया गया है कि देश भर में फैले 418 खदानों के सेफ्टी ऑडिट अर्थात सुरक्षा लेखा-जोखा का काम वह जल्द ही हाथ में लेगी, मगर वह एक किस्म की खानापूर्ति ही लग रही है. विडम्बना ही है कि इस ओपन कास्ट माइन में सब कुछ सामान्य नहीं चल रहा है. उसके संकेत शाम से ही मिलने लगे थे, श्रमिकों ने प्रबंधन से इसकी शिकायत तक की थी, मगर उन चेतावनियों की अनदेखी की गई और अंत में जब हादसा हुआ तब एक-दूसरे पर दोषारोपण किया जा रहा है. श्रमिक परिवारों का यह भी आरोप है कि रात के वक्त हुए इस हादसे में राहत एवं बचाव कार्य शुरू करने में भी देरी की गई, जिसके चलते कामगारों के काल-कवलित होने की संख्या बढ़ गई.

अभी पिछले साल की बात है. देश के एक अग्रणी अखबार ने जनवरी से जून तक खदान हादसों में हुए हादसों को लेकर बेहद विचलित करनेवाला विवरण प्रस्तुत किया था. जनवरी से जून तक ऐसे हादसों में हुई 65 मौतों को लेकर उसने अनुमान लगाया था कि देश के कोयला या गैर कोयला खदानों में हर तीन दिन पर एक मौत हो रही है, और इसी दौरान 122 लोग गंभीर दुर्घटना का भी शिकार हुए, इस तरह खदानों में हर डेढ़ दिन पर एक गंभीर दुर्घटना देखने को मिलती है. जानने योग्य है कि यह सभी आंकड़े कानूनी तौर पर संचालित खदानों के हैं, खदान क्षेत्र का कोई भी जानकार बता सकता है कि देश भर में गैरकानूनी स्तर पर इससे भी अधिक खदानें चल रही हैं, जहां स्थानीय प्रशासन, थैलीशाहों एवं असामाजिक तत्वों के अपवित्र गठबंधन के चलते होने वाली मौतें खबर तक नहीं बनतीं.

अखबार ने यह आकलन प्रस्तुत किया था कि जैसी कि स्थितियां मौजूद हैं आनेवाले दिनों में हालात अधिक बदतर हो सकते हैं. इससे जुड़े दो और गंभीर मसले भी हैं, जिसमें एक मसला मुआवजे का है जो विकलांगता या मौत के मामलों में मिलता है, जिसे देने में भी काफी देर किया जाता है. दूसरा मसला ठेकेदार मजदूरों का है, जो हर किस्म की सेफ्टी नेट से बाहर समझे जाते हैं. लिहाजा एक तरह से बेमौत मारे जाते हैं.

अगर आंकड़ों को देखें तो भारत 89 खनिजों की निकासी करता है, जिसके लिए 569 कोयला खदानों, 67 तेल और गैस खदानों, 1777 गैरकोयला खदानों और अन्य तमाम छोटी खदानों-जिनकी संख्या लाखों में पहुंचती है- का दोहन करता है, जिसके चलते औसतन 10 लाख श्रमिक दिनों की पूर्ति होती है और देश के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 5 फीसद की बढ़ोतरी होती है. इस बात को देखते हुए कि नियमित तौर पर हादसे होते हैं, इसी बात को दिखाता है कि सुरक्षा इंतजामों में कितनी लापरवाही बरती जाती है और किस तरह आस्ट्रेलिया, अमेरिका यहां तक कि चीन जैसे मुल्कों ने भी खदानों के कामों के लिए जो स्टैंर्डड ऑपरेटिंग प्रोसिजर्स तय किए हैं, उनकी खुल्लमखुल्ला अनदेखी की जाती है.

सुभाष गाताडे
लेखक


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