भाषा-बोली : न करें छार-छार हिन्दी को

Last Updated 12 Jan 2017 03:17:42 AM IST

अंग्रेजों के शताब्दियों तक जर-खरीद गुलाम रहे भारत जैसे मुल्कों के बीच, वहां के मीडिया द्वारा बहुत कारगर तरीके से, यह मिथ्या-प्रचार लगातार किया जाता रहा है कि अंग्रेजी ही ‘विश्वभाषा’ है और उसका कोई ‘विकल्प’ नहीं है.


भाषा-बोली : न करें छार-छार हिन्दी को

लेकिन अब सबसे बड़ी विडम्बना यही होने जा रही है कि अभी तक, जिस भाषा को ‘निर्विकल्प’ बताया और घोषित किया जाता रहा था, आज वही दुनिया की तीन भाषाओं के बढ़ते वर्चस्व से बहुत घबरायी हुई है. वे तीन भाषाएं हैं, स्पेनिश, मंदारिन और हिन्दी. जहां तक स्पेनिश का सवाल है तो वह तो ‘अंग्रेजी की संरचना’ में शब्दावली के स्तर पर सेंध लगा कर उसे ‘स्पेंग्लिश’ बनाए दे रही है. दूसरे क्रम पर चीन की ‘मंदारिन’ है, जो कि बहुत जल्दी, संभवत: चार-पांच वर्षो के भीतर ही ‘इंटरनेट’ पर छा जाने वाली है और अंग्रेजी के इस गर्व को चकनाचूर कर देगी कि वही कम्प्यूटर जगत की नियंता है. वहां के वैज्ञानिक, इंटरनेट पर, जो कुछ नया आता है, उसे लगे हाथ अपनी मंदारिन में विकसित कर लेते हैं. पिछली बार ही उन्होंने अश्लील सामग्री के मसले पर गूगल से झगड़ कर, उसकी हेकड़ी निकाल कर, पूरे विश्व को यह बता दिया था कि किसी दिन ‘माइक्रोसॉफ्ट’ ने यदि चीन से नजरें टेढ़ी कीं तो, वह उसके साथ भी यही सलूक करेंगे.

हिन्दी से उन्हें इतना सिर्फ इतना भर ही डर है कि यह अपनी ‘आबादी के बल पर’ ही ‘दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी बोली जाने वाली’ भाषा बन रही है और इस आधार पर वह ‘पॉवर लैंग्वेज इंडेक्स’ स्वीकृति की सूची में शामिल हो गई तो धीरे-धीरे, यह अपने देश-भारत-में, अंग्रेजी की बढ़त और बिक्री पर रोक लगा सकती है, क्योंकि भारत में अंग्रेजी सिखाने-पढ़ाने का व्यापार ही, अरबों डॉलर का बैठता है. वह तो ठप हो ही जाएगा, लेकिन आगे हजारों वर्ष के लिए यही भाषा भारत में, चलती रही तो क्या होगा? हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यहां जिन चीजों से ‘प्राण’ बचते हों, उनको ही बहुत आसानी से ‘प्राणलेवा’ बनाया जा सकता है.

मसलन, जनता के ‘हितों की रक्षा’ के लिए योजना बनाई जाए, वह ‘जनता के हितों को छीनने’ का आधार बन जाती है. हिन्दी के संदर्भ में, इस सचाई को देखा जा सकता है. दरअसल, मैं हिन्दी को महज एक भाषा नहीं बल्कि ‘सामासिक भाषिक परम्परा की शक्तिशाली संज्ञा’ मानता हूं. मसलन, गौर से देखें तो हम पाएंगे कि हिन्दी की सारी शक्ति उसकी बोलियों में है, क्योंकि, हिन्दी ने उन्हीं अपनी बोलियों से ही समूचा सामथ्र्य और शौर्य अर्जित किया. मुझे तो वह ‘दुर्गा’ के उस मिथक का पर्याय लगती है, जिसे महिषासुर के मर्दन के लिए देव समाज ने रचा था, जिसमें किसी देवता ने अपना तेज दिया, किसी ने अपना बल, किसी ने अस्त्र तो किसी ने शस्त्र-‘तत: समस्त देवानाम् तेजोराशिसमुद्भवाम्’.  अर्थात सभी से तेज-बल ग्रहण कर अवतरित हुई. इसी तरह, हिन्दी ने भी अपनी तमाम विभिन्न बोलियों से तेवर और तेज अर्जित करके आजादी की लड़ाई में, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध विजय पाई.

और आज वह अपनी चतुर्दिक व्याप्ति से, लगभग 58 करोड़ लोगों की जबान पर है. और इसकी यही संख्या ही तो अंग्रेजी को डरा रही है. नतीजतन, इसके विरुद्ध एक छाया-युद्ध शुरू कर दिया गया है कि कैसे इसका आकार छोटा किया जाए? निस्संदेह यह काम हिन्दी भाषी लोगों ने ही अपने हाथ में ले लिया है. वे उस हिन्दी को, जो कि एक बहुत समर्थ भाषा बन चुकी है, ‘बोली’ बनाने में लगे हैं. ‘भूमण्डलीकरण’ और ‘वि-पूंजीवाद’ के लिए भाषा सवरेपरि है. यदि चीन महाशक्ति होने के निकट है तो सिर्फ ‘मंदारिन’ के जरिये. लेकिन, ‘अ आ’ से सिर्फ ‘क्ष त्र ज्ञ’ तक वाली दुनिया की ‘सर्वाधिक वैज्ञानिक-लिपि वाली भाषा’ को ‘ज्ञान की भाषा’ नहीं बनने दिया गया, परिणामत: वह न तो शिक्षा की भाषा बन सकी, न ही रोजगार की. निश्चय ही यह अंग्रेजी की कूटनीतिक सफलता रही और अब तो वह भारत में सफलता के सारे गढ़ जीत लेगी, क्योंकि हिन्दी-भाषियों ने ही संगठित हो कर हिन्दी के उस ‘दुर्गा रूप’ का विखण्डन, तेजी से शुरू  कर दिया गया है. अवधी कहेगी-हमारा तुलसीदास लौटाओ, ब्रज कहेगी-सूरदास लौटाओ, भोजपुरी कहेगी-हमारा कबीर लौटाओ, राजस्थानी कहेगी-हमारी मीरा लौटाओ, मैथिली कहेगी-हमारा विद्यापति लौटाओ.

कुल मिलाकर, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, नागाजरुन और त्रिलोचन पर अंग्रेजी में एक पुस्तक आएगी, ‘हिन्दी राइटिंग ऑफ नॉन-हिन्दी स्पीकर्स’.
‘थिंक ग्लोबली’ वालों ने बताया कि ‘छोटे-छोटे राज्य आर्थिक विकास के लिए सर्वाधिक श्रेष्ठ हैं’, और बस क्या था, ‘एक्ट लोकली’ वालों ने राज्यों को तोड़ दिया. मगर जैसे ही मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ बना, उसकी राजभाषा ‘छत्तीसगढ़ी’ घोषित कर दी गई. झारखंड टूटा, झारखंडी का आंदोलन खड़ा हो गया, हरियाणा ‘हरियाणवी’ की मांग कर रहा है. ये सब संविधान की आठवीं सूची में शामिल किए जाने के लिए आंदोलन की राह पर जाने को तैयार है. राजस्थान, राजस्थानी की ओर ऐसे ही मालवी और निमाड़ी, बुंदेली और बघेली की मांगें शुरू ही रही है. जनगणना के समय, अपनी मातृभाषा के स्थान पर वह भाषा लिखाने की बात की जा रही थी, जो आपकी ‘बॉयोलॉजिकल-मदर’ बोलती है.

निश्चय ही जब जनगणना के आंकड़े सामने आएंगे तो ‘हिन्दी भाषा-भाषियों’ की संख्या इतनी दयनीय होगी कि उसके ‘राष्ट्रसंघ’ तो छोड़िए, किसी ‘जिले की भाषा’ बनाने का दावा भी समाप्त हो जाएगा. हिन्दी-उर्दू में एक बंटवारा पहले ही हो चुका है. अब गहरे राजनीति विवेक के अभाव में लोग अपनी-अपनी ‘बोलियों’ को ‘भाषा’ घोषित करवा कर उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए आंदोलन कर रहे हैं और इस तरह हिन्दी को सैकड़ों टुकड़ों में तोड़ दिया जाएगा. हम बोलियों के बहाने प्रकारान्तर से ‘भाषा’ और ‘भूगोल’ के एक महाविनाशकारी द्वंद्व की तैयारी कर रहे हैं. आप इसके पक्ष में हैं कि इसके विरोध में, यह निर्णय आपकी ‘सार्वभौमिक समझ’ की शक्ति तभी तय कर पायेगी, जब सौभाग्य से आपकी आंखें ‘राजनीति की रतौंध‘ से संक्रमित न हो पायी हों. इसलिये, बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के निहितार्थ को समझें.

प्रभु जोशी
लेखक


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