लांछना में तीस बरस

Last Updated 05 Mar 2024 01:20:59 PM IST

शादी के सात साल के भीतर पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में पति को तब तक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक उत्पीड़न या क्रूरता के पुख्ता सबूत न हों।


लांछना में तीस बरस

तीन दशक पहले पत्नी को उकसाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरोपित को बरी करते हुए यह कहा। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113ए पति व ससुरालियों द्वारा उकसाये जाने की धारणा स्थापित करती है। जहां शादी के सात साल के भीतर महिला क्रूरता की शिकार होकर आत्महत्या की हो।

यह मामला 1992 का है। अभियोजन के अनुसार, शादी के तुरंत बाद आरोपित व उसके मां-बाप ने पैसों की मांग शुरू कर दी। आरोपित राशन की दुकान करना चाहता था। 19 नवम्बर 1993 में महिला ने जहर खा कर आत्महत्या कर ली। करनाल के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 1998 में उसे धारा 306 के तहत अपराध का दोषी ठहराया। पंजाब/हरियाणा उच्च न्यायालय ने इसे बरकरार रखा।

शीर्ष अदालत ने कहा, केवल उत्पीड़न  पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके लिए प्रत्यक्ष कृत्य की भी आवश्यकता होती है। गैरकानूनी होने के बावजूद दहेज का लेन-देन अपने समाज में बदस्तूर है। दहेज की वेदी पर हर साल हजारों नववधुएं चढ़ जाती हैं।

रोजाना करीब बीस दहेज हत्याएं दर्ज होती हैं। ढेरों नववधुओं को आत्महत्या के लिए उकसाया जाता है। मगर यह भी सच है कि सभी आत्महत्या के मामलों में दहेज ही कारण नहीं होता। इस मामले में यदि मृतका को उकसाया भी गया हो तो दोषी ने लंबी सजा भुगत ली है।

तीस साल तक आरोपों से घिरा रहना और अदालतों के चक्कर काटना अपने आपमें त्रासद है। विडंबना है कि दोषी न होते हुए भी लोग सारी जिन्दगी न्याय के लिए घिसते रहते हैं। यही कारण है कि दहेज विरोधी कानूनों को लेकर समाज के एक वर्ग में काफी गुस्सा है।

वे इन्हें बदलने या लचीला बनाने की मांग करते रहे हैं। बगैर सबूतों के आरोप मढने और जबरन मामले को उलझाने वालों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। जिनकी बेटी की जान गयी, नि:संदेह उसकी क्षतिपूर्ति असंभव है।

मगर उनके कारण इस शख्स को बेवजह मानसिक व सामाजिक प्रताड़नाओं से तीस साल जूझना पड़ा। उसकी भरपाई कौन करेगा? इस नजरिए से देखें तो यह अब भी अधूरा न्याय ही है।



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