न मानें ‘वन चाइना’
कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश में आयोजित जी-20 की बैठकों के बारे में चीन एवं पाकिस्तान की आपत्तियों को खुद प्रधानमंत्री की तरफ से खारिज करने के बाद इस मसले को दोबारा नहीं उठाया जाना चाहिए। इसलिए कि उनके मंतव्य को अंतिम मान लिया जाता है। पर यह संसद का दस्तूर है।
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उसके बाहर सवाल खत्म ही नहीं होते, जब तक कि जनता को जंचने लायक जवाब न मिल जाए। दरअसल, चीन मामले में भी देश की यह व्यग्रता 2020 में गलवान में भारत के साथ सैन्य झड़प के बाद से अधिक बढ़ गई है। इसलिए प्रधानमंत्री के बेलाग जवाब के एक दिन बाद ही नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला ने पूछा कि जब चीन कश्मीर-अरु णाचल को अखंड भारत का अविभाज्य हिस्सा नहीं मानता तो मोदी सरकार को ‘वन चाइना’ की घोषित नीति व सिद्धांत को छोड़ने में क्या परेशानी है?
दरअसल, गलवान के बाद उत्पन्न हालातों को बातचीत के जरिए काबू पाने के लिए जारी सभी संभव प्रयासों के बीच, चीन ने भारत के अरुणाचल प्रदेश को अपने देश का हिस्सा बताते हुए फिर से एक मैप जारी कर दिया है। हालांकि इसे भारत समेत नेपाल, मालदीव और रूस ने खारिज कर दिया है, लेकिन चीन ने इसी नजरिये से यहां हुई जी-20 के कार्यकारी समूह की बैठक पर अपना एतराज जताया था। वहीं, कश्मीर में पर्यटन-विकास के नजरिये से 22 मई से तीन दिनों तक बुलाई गई बैठक में भी उसने हिस्सा नहीं लिया था।
इसलिए कि चीन का ‘सदाबहार दोस्त’ पाकिस्तान इसे ‘विवादित’ मानता है। क्या चीन की ये कारगुजारियां ‘वन चाइना’ मानने की भारतीय नीति की समीक्षा के लिए पर्याप्त नहीं हैं? खासकर तब जबकि चीन कश्मीर-अरु णाचल को भारत का हिस्सा नहीं मान रहा है। इसी पृष्ठभूमि में उमर अब्दुल्ला की सरकार को सलाह है कि भारत भी ताइवान, तिब्बत और हांगकांग पर चीनी प्रभुत्व के दावों पर सवाल उठाए और इन्हें ‘बृहत्तर चीन’ का हिस्सा मानने से इनकार कर दे।
पहले भारत ने, और यहां शरण लिए हुए धर्मगुरु दलाईलामा ने भी तिब्बत पर बीजिंग के दखल को मान लिया है। पर चीन ऐसी ही ‘परस्परता’ नहीं दिखा रहा है तो भारत उसे एकतरफा क्यों निभाए? उमर के सवाल और सलाहियत बिल्कुल वाजिब हैं। जो भी हो, भारत को इन पर पुनर्विचार करना चाहिए। फिलहाल तो यह जी-20 की अध्यक्षता और इसके शिखर-अतिथि नेताओं के सत्कार में लगे भारत के लिए विचारणीय नहीं हो सकता है।
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