यूसीसी के खिलाफ
समान नागरिक संहिता (UCC) इस समय देश में एक अति विवादास्पद मसला है। इस पर विभिन्न राज्यों एवं धार्मिक समूहों एवं समुदायों की एक राय नहीं है। केरल विधानसभा ने इसे संविधान-सम्मत नहीं मानते हुए एक सर्वसम्मत प्रस्ताव के जरिए इसका विरोध किया है।
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मिजोरम विधानसभा पहले ही अपना विरोध जता चुकी है। यूसीसी के विरोधियों का कहना है कि यह धार्मिंक स्वतंत्रता का उल्लंघन कर सकती है और इससे देश में प्रचलित विभिन्न धार्मिंक प्रथाओं से उसका टकराव हो सकता है। चूंकि भारत विभिन्न संस्कृतियों वाला राष्ट्र है, इसलिए विभिन्न समुदायों को अपने विशिष्ट रीति-रिवाजों और प्रथाओं को बनाए रखने का अधिकार होना चाहिए। अल्पसंख्यक समुदायों पर उनकी सहमति के बिना कोई कानून लागू नहीं किया जाना चाहिए।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी कहा है कि वह शरीअत से बाहर कुछ भी स्वीकार नहीं करेगा। सिखों ने भी इसी तर्ज पर अपने लिए अलग यूसीसी की मांग की है तो आदिवासियों ने इससे अपने को बाहर रखने की आवाज उठाई है। हालांकि केंद्रीय विधि आयोग की तरफ से कोई मसौदा अपने अंतिम रूप में नहीं थोपा गया है। देश से राय ही मांगी गई है।
प्रदेशों की विधानसभाएं एवं सरकारें अपनी पार्टी लाइन पर समान संहिता का विरोध या समर्थन कर रही हैं। भाजपा शासित प्रदेश गुजरात, मध्य प्रदेश, असम और उत्तराखंड इसके समर्थन में हैं। उत्तराखंड में ड्राफ्ट तैयार है और वहां की धामी सरकार इसको सबसे पहले लागू करने को लेकर काफी उत्साहित है। उसके सामने गोवा का उदाहरण है, जहां 1962 से ही सभी धर्मों के लिए विवाह, तलाक और उत्तराधिकार के समान नियम लागू हैं।
हालांकि संविधान में इसकी व्यवस्था की गई है कि राष्ट्र राज्य भारत अपने नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने के लिए सहमति बनाने का प्रयास करेगा।तब अम्बेडकर एवं लोहिया भी इसके पक्ष में थे तो केरल के प्रसिद्ध मार्क्सवादी इ. नम्बूदिरीपाद भी। हालांकि भाजपा (तब जनसंघ) के श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ‘एक देश दो प्रधान दो विधान नहीं चलेगा’, के नारे पर जोर दिया और इसे एजेंडा बनाया। इसने यूसीसी जैसे प्रगतिशील विचार पर एक खास पार्टी का कॉपीराइट मानते हुए सर्वदलीय सहमति की कोशिश को पीछे धकेल दिया। विरोध की अधिक वजह यही है।
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