सम्मान पर तकरार
प्रख्यात गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार-2021 दिए जाने की सरकार की घोषणा पर विपक्ष हमलावर है।
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सरकार का कहना है कि ‘यह पुरस्कार अहिंसक एवं अन्य गांधीवादी तरीकों से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की दिशा में उसके उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाएगा।’ फिर भी कांग्रेस को लगता है कि यह ऐलान गांधी के हत्यारे गोड्से और ‘घोर साम्प्रदायिक’ सावरकर को सम्मान दिलाना है। निस्संदेह इसका प्रकाशन हिंदू धर्म की कालजयी कृतियों को शुद्ध वर्तनी के साथ सहेजने और उनको व्यापक हिंदू समाज के समक्ष पेश करने की जरूरत से शुरू किया गया था।
पर ऐसा करते हुए उसका मकसद मानव धर्म के सभी सरोकारों; जिनमें समाज एवं राष्ट्र हित शामिल हैं, उनके प्रति व्यक्तिगत एवं सामूहिक चेतना का उन्नयन करना था। यहां से प्रकाशित वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, रामायण एवं महाभारत आदि ने उस समय के तमाम स्वतंत्रता सेनानियों को आजादी के प्रति उनकी पहली प्राथमिकता से विमुख नहीं किया। गांधी समेत उस समय के तमाम राष्ट्रीय नेताओं ने इन किताबों को अपने कर्मपथ के विस्तार के लिए ही इस्तेमाल किया। खुद गांधी ने वहां की विख्यात पत्रिका कल्याण में लेख लिखा था।
इसके विज्ञापनविहिन प्रकाशन के जो जंतर दिए थे, उसे वह आज भी सम्हाले चल रही है। फिर अपनी विरासती ज्ञान को सम्हालना-सहेजना किसी भी जिंदा समाज का सहज दायित्व है। किसी भी विचारधारा या दशर्न ने इसको गुनाह नहीं माना है। फिर गीता प्रेस की पाठ सामग्री का गोड्से या सावरकर की निर्मिंति में सीधा अंतर्संबंध होता तो हिंदी पट्टी में स्वाधीनता का जारी घमासानी संग्राम धार्मिंक आधार पर विभाजित होकर भटक गया होता। वास्तव में, कांग्रेस के बौखलाने की वजह दूसरी है।
उसे लगता है कि मोदी सरकार ने गीता प्रेस को सम्मानित करने के बहाने व्यापक हिंदू समाज के वोट बैंक का ध्रुवीकरण कर लिया है, जिनके घर-घर में वह पुस्तकों के जरिए अपनी नियमित पहुंच बनाए हुए है। लेकिन गीता प्रेस इतना ही वोट दिलाऊ होता तो आजादी के तुरंत बाद देश में कांग्रेस की नहीं तब की जनसंघ की सरकार होती। अब गलत लांछना लगा कर कांग्रेस ने एक बार फिर अपने पाले में गोल कर लिया है, जो भाजपा की मंशा है और जिसका खमियाजा वह 2014 चुनाव से भुगतती चली आ रही है। सरकार के निर्णय की आलोचना विपक्ष का अधिकार है पर औचित्य उसकी कसौटी है।
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