सच की ताकत
मशहूर शायर और जाने-माने फिल्म लेखक जावेद अख्तर की लाहौर में की गई टिप्पणी वायरल हो गई।
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यह इस टिप्पणी की जरूरत के बारे में जितना बताता है, उससे ज्यादा विभाजन की उस खाई की गहराई के बारे में बताता है, जो हमारे दक्षिण एशियाई उप-महाद्वीप में, उसके सांस्कृतिक-ऐतिहासिक साझे के बावजूद डाल दी गई है। पिछले कुछ वर्षो में खास तौर पर भारत और पाकिस्तान के बीच दीवारें तो इतनी ऊंची कर दी गई हैं कि उस तरह के साझा आयोजन तक अब दुर्लभ हो गए हैं, जिनमें दोनों देशों के लेखक-कलाकार, फैज अहमद फैज की शायरी जैसे, अपने साझे विरसे का मिलकर जश्न मना सकते हों।
यह तब है जबकि सभी जानते हैं कि इस साझेपन को देखने और दिखा सकने वाले लेखक-कलाकार-बुद्धिजीवी और खिलाड़ी ही हैं जो इस क्षेत्र की साझा नियति का विवेक जगा सकते हैं और शासनों के इस विवेक के विरोधी आचरण को, आईना भी दिखा सकते हैं। यह आईना दिखाना, आरोपों-प्रत्यारोपों से बिल्कुल भिन्न बल्कि कहें कि उसका उलट है। आरोपों-प्रत्यारोपों की तो इस क्षेत्र में भरमार है। किंतु वह संवाद नहीं, एकालाप का मामला है। आईना वही दिखा सकता है, जो संवाद का हिस्सा है, जिसमें साझा नियति की तलाश की बेचैनी है। इसीलिए जावेद अख्तर जैसे लोगों को सीमा के आर-पार लोग सुनना चाहते हैं, और वे भी सीमा के दोनों ही ओर के शासकों को आईना दिखा सकते हैं।
और लोग उनकी दलील के कायल भी होते हैं। यह अप्रासंगिक ही नहीं है कि जावेद अख्तर की टिप्पणी, एक शिकायत के तौर पर आई, जो पड़ोसी देश से हिंदुस्तानियों के दिल में है। शिकायत यह है कि जिन्होंने हमारी मुंबई पर हमला किया, ‘वही लोग आपके मुल्क में अभी भी घूम रहे हैं।’
पाकिस्तानी श्रोताओं के दिलों में दूरी की शिकायत के जवाब में वह यह शिकायत रखते हैं, और कहते हैं कि हिंदुस्तानियों के दिल में अगर यह शिकायत हो तो, आप को उसका बुरा नहीं मानना चाहिए! हैरानी की बात नहीं है कि पाकिस्तान में उनके श्रोताओं में से किसी ने भी उनकी बात का न तो बुरा माना और न ही इस पर ऐतराज किया। यही दिलों के संवाद की भाषा है। दिलों के संवाद के बिना आप अपनी बात दूसरे को समझा तक नहीं सकते हैं, मनवाना तो दूर की बात है। पर दुर्भाग्य से हम तो ताकत की भाषा के मोह में, दिल की बात करने वालों के लिए, संवाद की खिड़की खोलने वालों के लिए, दरवाजे ही बंद ही करते जा रहे हैं।
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