कथक के शिखर
कुछ कलाकार अपनी विधा के पर्याय बन जाते हैं। कथक की कला को कई कलाकारों ने साधा है और खूब लोकप्रियता भी पाई है, लेकिन पंडित बिरजू महाराज के नाम से जुड़कर कथक को एक पूर्णता मिलती है तो इस कारण कि अपनी प्रतिभा और साधना से वे इस नृत्य को नई ऊंचाई पर ले गए।
कथक के शिखर |
उनका निधन संगीत जगत की एक बड़ी क्षति है। उन्हें 83 वर्षो की लंबी आयु मिली, लेकिन वे आखिरी समय तक अपनी कला में सक्रिय भी रहे। कोराना में जब संगीत आयोजन बंद थे वे देश-विदेश में फैले अपने सैकड़ों शिष्य-शिष्याओं को सिखाते, उनके लिए कार्यशालाएं करते रहे। बिरजू महाराज ने अपने जीवन का करीब दो-तिहाई हिस्सा दिल्ली में बिताया लेकिन वह कथक में लखनऊ घराने का प्रतिनिधित्व करते थे। उनका परिवार कथक के प्रसिद्ध नर्तकों का परिवार था।
वह ईश्वरी प्रसाद के वंशज थे जो इलाहाबाद की हंडिया तहसील से अवध के नवाबों के दरबार में पहुंचे थे। इस परिवार में ठाकुर प्रसाद, दुर्गा प्रसाद, कालका महाराज, बिंदादीन महाराज, अच्छन महाराज, लच्छू महाराज जैसे विख्यात नर्तक हुए, लेकिन इस समृद्ध विरासत ने उन्हें आक्रांत नहीं किया बल्कि इसके बीच उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। वे भाव में भी पारंगत हुए और तैयारी में भी, लेकिन साथ ही उन्होंने कथक को नये आयाम भी दिए। वह अपने नृत्य प्रदर्शनों में जब तिहाइयों को आलसी और फुर्तीले दोस्तों की कहानी से जोड़ देते या टेलीफोन की घंटी बना देते तो इससे वे दर्शक भी उनकी कला के कायल हो जाते थे, जो शास्त्रीय संगीत का ककहरा नहीं समझते हैं। मां ने बंदिशें ही नहीं सिखाई, जीवन दर्शन भी दिया, प्याज-रोटी खाकर रहना सिखाया।
अपनी कला में जैसे वह सम पर लौटते थे, जीवन की तमाम प्रसिद्धि, सम्मान की ऊंचाई पर भी वह सरलता-सहजता का यह पाठ भी वह कभी नहीं भूले। नृत्य के शिखर तो थे ही ताल वाद्य भी बजाते थे, खूब गाते थे, अपनी कार भी बना लेते और पेंटिंग भी। उन्होंने कमल हासन, माधुरी दीक्षित, दीपिका पादुकोण जैसे लोकप्रिय फिल्मी कलाकारों को भी नृत्य के गुर सिखाए, फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली को भी अपना प्रशंसक बना लिया। जीवन के अंतिम वर्षो में बिरजू महाराज लखनऊ लौटना चाहते थे, मगर कथक का यह महान नर्तक कभी न लौटने वाली यात्रा पर निकल गया।
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