महंगाई की मार

Last Updated 19 Oct 2021 02:41:56 AM IST

सैंया तो खूब ही कमात है, पर महंगाई डाइन सब खाय जात है!


महंगाई की मार

फिल्म ‘पीपली लाइव’ से लोगों की जुबान पर चढ़े लोकगीत के इस मुखड़े में भी बदलाव लाने का वक्त आ गया है। बेरोजगारी के आंकड़े बताते हैं कि सैंया का खूब कमाना छोड़ो, अब तो कुछ भी कमाने के लाले पड़ गए हैं। यह कहानी सिर्फ कोविड-19 की महामारी के दौर की नहीं है।

कोविड से पहले से बेकारी की दर में बढ़ोतरी के ऐसे अप्रिय आंकड़े आ रहे थे कि सरकार ने 2019 के आम चुनाव से पहले बेरोजगारी के आधिकारिक आंकड़ों को दबाने और अंतत: दफन कर देने में ही अपनी भलाई समझी, लेकिन जनता के दुर्भाग्य से सरकार के आंख मूंदने से समस्याएं गायब नहीं होती हैं। पर बेरोजगारी के बाद अब महंगाई के मामले में भी सरकार वही कार्यनीति अपनाती लगती है--आंख मूंद लो, और सब गायब! पर गायब सिर्फ जनता की बदहाली हो रही है, मीडिया से।

बेशक, पिछले अनेक वर्षो से उदारता की नीतियों के नाम पर, जिस तरह सब कुछ बाजार के भरोसे छोड़ दिए जाने का आर्थिक जीवन में बोलबाला हो गया है, उसमें महामारी जैसी बड़ी आपदा के धक्के से, महंगाई को तो भड़कना ही था, लेकिन महंगाई के मौजूदा विस्फोट के पीछे सिर्फ इतना ही नहीं है। इसी दौर में सरकार ने पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस आदि, तेल उत्पादों पर करों में अंधाधुंध बढ़ोतरी को, अपने राजस्व की कमी की भरपाई का एक प्रमुख स्रोत बना लिया है।

इसने महंगाई की चौतरफा फैली आग पर पेट्रोल छिड़कने का काम किया है। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि पेट्रोल-डीजल के दाम सैकड़ा पार चुके हैं या रसोई गैस के दाम में महामारी के दौरान ही सैकड़ों रुपये की बढ़ोतरी हो गई है। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि इन तेल उत्पादों के दाम में बढ़ोतरी, कृषि से लेकर औद्योगिक मालों तथा सेवाओं तक, हर तरह के उत्पादन की लागत में जुड़ती है और हर चीज के दाम में बढ़ोतरी के लिए दबाव बनाती है।

इसीलिए, अर्थशास्त्र की भाषा में तेल उत्पादों को यूनिवर्सल इंटरमीडियरी कहा जाता है। तेल की मौजूदा कीमत में आधा हिस्सा करों का है, जो महंगाई बढ़ाने वाले इस उपाय से आम जनता पर असह्य बोझ डाले जाने का ही मामला है। और इसे तो सरकार की औंधी प्राथमिकताओं का प्रतिबिंब ही कहा जाएगा कि हवाईजहाज में इस्तेमाल होने वाला ईधन पट्रोल की कीमत मध्यवर्गीय व्यक्ति की स्कूटी के पेट्रोल की कीमत से, एक-तिहाई कम है! आश्चर्य है कि इस घनघोर महंगाई को लेकर न तो राजनीतिक पार्टियों में पहले वाला तेवर रहा और न जनता में कोई आक्रोश।



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