अलग-अलग मानवाधिकार

Last Updated 15 Oct 2021 02:00:04 AM IST

मानवाधिकार आयोग के अठाइसवें स्थापना दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मानवाधिकारों के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा की।


अलग-अलग मानवाधिकार

उन्होंने कहा कि मानवाधिकारों को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए और इसके संबंध में हितानुकूल चुनिंदा रवैया नहीं अपनाया जाना चाहिए। प्राय: देखा जाता है कि एक ही प्रकृति की दो घटनाओं के संबंध में कथित मानवाधिकारवादी एक घटना में तो मानवाधिकार के उल्लंघन को देखते हैं, और उसे जोर-शोर से अपने मंचों से उठाते हैं, लेकिन उसी तरह की दूसरी घटना को नजरंदाज कर जाते हैं, या जानबूझकर चुप्पी मार जाते हैं। भारत में यूं तो मानवाधिकारों की परिभाषा बहुत विरल है, विभिन्न समूह अपने-अपने सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक विचारों के आधार पर मानवाधिकारों के हनन को तय करते हैं।

अपने देश में ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे जहां एक ही प्रकृति की परिघटना पर विभिन्न समूहों की विभिन्न दृष्टियां सामने आती रही हैं। भारत में सक्रिय हिंसा प्रेरित समूह ‘जैसे कि कश्मीर में’, किसी के लिए स्वतंत्रता सेनानी हैं, और उनके द्वारा की गई हिंसक घटनाएं निंदनीय न होकर सराहनीय हैं, दूसरी ओर ये हिंसक समूह अन्य समूहों के लिए घृणित आतंकवादी और निर्दोष लोगों के हत्यारे हैं जो मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन कर रहे हैं।

ताजा उदाहरण किसान आंदोलन का है। आंदोलन करना किसानों का मानवाधिकार है, लेकिन यही किसान जब लाखों करोड़ों लोगों के लिए जान-माल संबंधी तथा अन्य प्रकार की कठिनाइयां पैदा कर रहे हैं, तो किसान समूह इसे मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं मानते, जबकि आंदोलन से परेशान जनता की नजर में यह उनके मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन है। इसकी चरम विसंगति लखीमपुर की घटना में नजर आई। वाहन से कुचले जाकर मरने वाले किसानों की मौत को वीभत्स हत्या करार दिया गया यानी इसे किसानों के मानवाधिकारों का गंभीरतम हनन माना गया, लेकिन किसानों ने जिन्हें पीट-पीट कर मार डाला उनके बारे में ऐसी चुप्पी साध ली गई जैसे कि किसानों द्वारा किया गया यह कृत्य भी उनका मानवाधिकार है।

छत्तीसगढ़ और पंजाब की सरकारों ने मृत किसानों के लिए तो भारी अनुदान घोषित किया लेकिन किसानों द्वारा जिन लोगों की हत्या की गई, उन पर घृणात्मक चुप्पी साध ली गई। जहां व्यक्तियों की मृत्यु पर इस तरह का मानवाधिकारवादी नजरिया अपनाया जाता है कि वहां वस्तुत: किसी के भी मानवाधिकार की सुरक्षा नहीं हो सकती। मानवाधिकार को जाति, धर्म, राजनीति से परे जीवन का अधिकार रखने वाले एक नागरिक के संबंध में ही देखा जाना चाहिए, फिर चाहे वह जिस वर्ग या विचारधारा से आता हो। मानवाधिकारों पर चुनिंदा दृष्टिकोण अपनाना सामाजिक ताने-बाने के लिए भी घातक है और देश की आंतरिक शांति और सुरक्षा के लिए भी।

मानवाधिकारों पर आज एक गंभीर बहस की जरूरत है ताकि मानवाधिकारों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा और समझा जा सके। मानवधिकारों के मामले में सरकार हो या विपक्ष, दोनों को ही अतिवादी दृष्टिकोणों से हटकर व्यापक समन्वयवादी, शांतिपूर्ण, सुरक्षित और सर्वहितकारी सामाजिक व्यवस्था की निर्मिति की दृष्टि से देखना चाहिए और इस मामले पर एकमत होना चाहिए। 



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment